दर्द-ए-फ़ुर्क़त1 हर बार ही इतना क्यूँ सताता है
कुछ सुना था इंसां तजुर्बों से सीख जाता है
चाँद तारे सब तोड़ ले कर ले कुछ भले हासिल
बिन मुहब्बत के आदमी पर कब लहलहाता है
तू वही सच ना-क़ाबिल-ए-तरमीम2 ज़मानों से
फिर ज़माना हर बार तुझको क्यूँ आज़माता है
इश्क़ से बेहतर तरबियत3 कोई दे नहीं सकता
शाइरी से ले कर सलीक़े तक सब सिखाता है
हो चुकी है ख़ुदगर्ज़ दुनिया इतनी कि अब कोई
बेवजह ना मुझको हँसाता है ना रुलाता है
इश्क़ का दामन थामना मुश्किल कब नहीं था पर
सब लुटाने का हौसला हो तो हाथ आता है
कुछ अलग सा अंदाज़ है क़ुदरत की ही तरह इसका
इश्क़ तुमको पहले मिटाता है फिर बनाता है
1. फ़ुर्क़त = वियोग
2. ना-क़ाबिल-ए-तरमीम = अपरिवर्तनीय; नित्य
3. तरबियत = परवरिश; प्रशिक्षण देना; सभ्यता और शिष्टाचार सिखाना
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