Saturday, 17 October 2020

इन्सान और आईना

  

तुम इन्सान हो,

कोई आईना नहीं !

 

तो फिर क्यों,    

तुम्हारे आदाब,  

सामने वाले के

हिसाब से होते हैं.

 

तुम इन्सान हो,

कोई आईना नहीं !

 

तो फिर क्यों,

किसी की कमियाँ,

तुम बेबाक हो कर

बयाँ कर जाते हो.

 

तुम इन्सान हो,

कोई आईना नहीं !

 

तो फिर क्यों,

किसी के दिल का दर्द,

किसी की ख़ूबी-ए-निहाँ,

तुम देख नहीं पाते.

 

तुम इन्सान हो,

कोई आईना नहीं !

 

तो फिर क्यों,

इतनी नज़ाक़त,

कि एक ज़रा सी चोट,

और तुम बिखर से जाते हो.

 

तुम इन्सान हो,

कोई आईना नहीं !

 

तो फिर क्यों,

अँधेरों में तुम,

बेबस, लाचार से

नज़र आते हो.

 

तुम इन्सान हो,

कोई आईना नहीं !

 

तो फिर क्यों,

एक उदास शख़्स,

तुमसे मिल कर,

सुकून नहीं पाता.

  

तुम इन्सान हो,

कोई आईना नहीं !

 

तो फिर क्यों,

महसूस नहीं करते,

अपने सामने वालों को,

और अपने आप को.

 

आख़िर तुम इन्सान हो,

कोई आईना नहीं !

 

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