नया ये साल भी सफ़्हा1 पलटने का बहाना है
नई तारीख़ तो है पर वही क़िस्सा पुराना है
पुराना दिन पुरानी रात सब कुछ तो पुराना है
नज़रिया इक नया ले कर नया इनको बनाना है
पुराना ग़म पुराना दिल पुरानी बात है वो अब
भुलाना हो भले मुश्किल मगर उसको भुलाना है
चलो फिर ढूँढते हैं इक पुराना पड़ रहा नाता
किसी रूठे हुए दोस्त को कैसे भी मनाना है
मिली यूँ तो तुम्हें मंज़िल भटक कर रात दिन लेकिन
पता उस रहगुज़र2 का अब तुम्हें सबको बताना है
हक़ीक़त वो नहीं बस जो समझते आ रहे हो तुम
जिहालत3 से तुम्हें अपनी अभी पर्दा उठाना है
नये इस साल में भी हो तेरा इक अज़्म-ए-मोहकम4 ये
झुके तुझसे न ये दुनिया मगर फिर भी झुकाना है
1.
सफ़्हा = क़िताब का पन्ना
2.
रहगुज़र = रास्ता; मार्ग
3.
जिहालत = अज्ञानता; अशिष्टता
4.
अज़्म-ए-मोहकम = दृढ़ संकल्प
वाह गुरुदास बहुत बढ़िया लिखा है। हक़ीक़त वो नहीं बस जो समझते आ रहे हो तुम
ReplyDeleteजिहालत3 से तुम्हें अपनी अभी पर्दा उठाना है यह सब से शानदार शेर लगा । ,👍👌👌👌
बहुत शुक्रिया!
Deleteजबरदस्त भाई..
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया!
Deleteबहुत खूब... एक ऐसे घिसे पीटे शीर्षक पे शेर लिखाना अपने आप में मुश्किल है, लेकिन उसमे भी इस gehrai को लाना तो बेहतरीन है...
ReplyDeleteबहुत आभार!
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