दोस्त एक एक कर के बिछड़ने लगे हैं
सब के सब अजनबी आज लगने लगे हैं
सब चले थे कभी साथ मिल कर मगर अब
हमक़दम अपनी राहें बदलने लगे हैं
हाँ अलग था नज़रिया सभी का शुरू से
पर नई बात देखी कि लड़ने लगे हैं
अलहदा1 जिस्म सबके मगर जान एक थी
दूर कितने वही दोस्त लगने लगे हैं
हम खड़े जब उसी मोड़ पर बचपने के
दोस्त ख़ुद को बड़ा क्यूँ समझने लगे हैं
ये नहीं कि तअल्लुक़ नहीं अब किसी से
वक़्त के साथ रिश्ते बदलने लगे हैं
उम्र थोड़ी ढ़ली फिर कई दोस्तों के
ज़ेहन में वो ज़माने मचलने लगे हैं
ज़िक्र जब भी कहीं पर चला दोस्ती का
चेहरों के तअस्सुर2 बदलने लगे हैं
चन्द लम्हे गुज़ारे थे जो साथ उनके
दिन उन्हीं के सहारे गुज़रने लगे हैं
खो गया दोस्त अपना उसे ढूँढने को
याद की हर गली हम भटकने लगे हैं
ज़िन्दगी एक बड़ी ख़ूबसूरत पहेली
हार कर भी कई हल निकलने लगे हैं
वक़्त कितना कठिन आ गया है न पूछो
रोज़ दस्तूर – ए – दुनिया बदलने लगे हैं
बस ख़ुलासा3 यही ज़िन्दगी का समझिये
रास्ते को सफ़र हम समझने लगे हैं
1. अलहदा = अलग, जुदा, पृथक
2. तअस्सुर = असर, प्रभाव
3. ख़ुलासा = सारांश, निचोड़, निष्कर्ष
2. तअस्सुर = असर, प्रभाव
3. ख़ुलासा = सारांश, निचोड़, निष्कर्ष
ज़िन्दगी एक बड़ी ख़ूबसूरत पहेली
ReplyDeleteहार कर भी कई हल निकलने लगे हैं
वाह गुरुदास शानदार ग़ज़ल शानदार लाइन। मुरली
बहुत शुक्रिया !
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