अब हमें ख़ुद से भी अलगाव चाहिए
मुश्किलें ज़िन्दगी में कब न थीं मगर
इस तरह
का किसे उलझाव
चाहिए
भर चुके
हैं पुराने ज़ख़्म
अब सभी
ज़िन्दगी से
नया फिर घाव चाहिए
बोरियत ज़िन्दगी
की कब तलक रहे
दिल को अब इक नया बहलाव चाहिए
हाशिये तक सिमट कर क्यूँ रहे
भला
ज़िन्दगी को ज़रा फैलाव चाहिए
ज़िन्दगी का सबक़ आसान कब रहा
इसलिए बारहा1 दुहराव चाहिए
मसअले2 मुख़्तलिफ़3 इस दौर के नहीं
सोच में बस अलग लहराव चाहिए
इंतिहा4 हो चुकी जब ज़ुल्म की तो फिर
वक़्त माक़ूल5 है बदलाव चाहिए
जब लगे डूबने उम्मीद आख़िरी
हौसलों की नई इक नाव चाहिए
दर्द तू पूछ मत ऐ ज़िन्दगी समझ
शाह6 हूँ शाह सा बर्ताव चाहिए
- बारहा = बार-बार, प्राय:, कई बार
- मस’अला = मुद्दा, समस्या, मुआमला
- मुख़्तलिफ़ = भिन्न, अन्य, पृथक
- इंतिहा = आख़िरी हद, चरम सीमा, बहुत ज़ियादा, पराकाष्ठा
- माक़ूल = उचित
- शाह = राजा, सबसे बड़ा / बेहतर
बेहतरीन ग़ज़ल ,लगता ही नहीं आज के वक्त में लिखी गई है। किसी दाग,मोमिन के कलाम सी उम्दा अदायगी। पहले ही शेर से चौंकाती हुई। वाह 👍👍👍💐
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया !
Deleteमाशाअल्लाह, बेहतरीन
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया !
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