हमारी ज़िंदगी की रफ़्तार
किस क़दर बढ़ चुकी है, इसका अहसास चन्द महीनों पहले तब हुआ, जब किसी ऑफिस की
ट्रेनिंग के सिलसिले में मुम्बई जाना हुआ. यूँ तो घूमने और नई जगहें खँगालने का
शौक़ीन रहा हूँ, पर किसी न किसी वजह से, अपनी तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी के लिए मशहूर मुम्बई, अब
तक मुझसे अनछुई ही रही है. रेलवे स्टेशन से बाहर निकलने से ले कर होटल पहुँचने तक, और वहां से फिर ऑफिस
पहुँचने तक, हर लम्हा ज़िन्दगी भागती हुई सी ही महसूस हुई.
कॉलेज पूरा होने के बाद, रोज़गार की तलाश में कुछ दोस्त मुम्बई भी आये थे. पर
अब उनमें से सिर्फ़ एक ही यहाँ है. बात करने पर पता चला कि उसका ऑफिस मेरे होटल के
पास ही है. रात के खाने पर मुलाक़ात तय हुई. खाने के दौरान बातों-बातों में पता चला
कि कोई 5-6 साल पहले उसे दिल का दौरा पडा था. साथ रह रहे दोस्त अस्पताल ले गए और किसी तरह
से बमुश्किल जान बच पाई. वो और भी तफ़सील दे रहा था, पर मैं इन ख़यालों में ही उलझ
कर रह गया था, कि अभी से ही...! अभी तो हम 40 के भी नहीं हुए, और अभी से ये सब ! तेज़ भागती ज़िन्दगी
में जब सब कुछ तेज़ रफ़्तार है, तो फिर मौत क्यों सुस्त क़दमों से चले !
वो कुछ बता रहा था कि कैसे उसने शराब व सिगरेट से तौबा कर ली है, अपनी सेहत का
ख़याल रख रहा है और अब चिंता की कोई बात नहीं है; सब ठीक है ! हाल ही में वह पिता
बना है, ये जान कर थोड़ी देर के लिए अच्छा तो लगा, पर अगले ही पल फिर से मन में
आशंकाएँ घर करने लगीं. उसके चले जाने के बाद भी, रात गए तक ज़ेहन में वही ख़याल जमा बैठा
था. पिछली पीढ़ी को जिन चीज़ों से 50 के बाद रूबरू होना पड़ता था, अब हमें 40 के पहले होना पड़ रहा है. रफ़्तार वाक़ई तेज़ है !
ज़ेहन में एक और दोस्त का ख़याल उभरा, जिसकी महत्वाकांक्षाएँ उसे सरहद पार ले
गईं हैं. और व्यावसायिक दृष्टिकोण से वो बहुत अच्छा भी कर रहा है. पर हाल ही में
उसे स्लिप डिस्क की शिक़ायत हुई, और वो कई हफ़्तों तक बिस्तर से बँध कर रह गया.
हालाँकि एक जटिल ऑपरेशन के बाद और अपनी अदम्य इच्छाशक्ति के बल पर वह फिर से उठ
खड़ा हुआ है, पर ये भी 40 के पहले !
ऐसे और भी कुछ वाक़ये हैं, जिनको पहले मैंने शायद एक अपवाद मान कर दरकिनार कर
दिया था, पर इन दोनों वाक़यों ने मेरा नज़रिया बदला है. तीस के दशक में मौत तो दूर
की बात है, सेहत के बारे में भी कम ही लोग सोचते हैं. अपने साथ के लोगों को मौत से
रूबरू होते देखना आपको भी उसी कतार में खड़े होने की याद दिलाता है. पर साथ ही ये
भी याद दिलाता है कि जीवन में सबसे कठिन चुनौती है संतुलन बनाने की. रफ़्तार इतनी
धीमी भी न हो कि कहीं पहुँच ही न सकें, और इतनी तेज़ भी न हो कि पहुँचने की समस्त संभावनाएँ
ही समाप्त हो जाएँ.
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