Tuesday, 13 July 2021

गुनाह

गुनाहों   का  तेरे   अब   फ़ैसला   जाने  कहाँ   होगा
क़यामत  आ चुकी  अब  तो  ख़ुदा  जाने  कहाँ  होगा

डरा कर  ख़ौफ़  से  तेरे  सितम  होता  रिआया1 पर
ख़तम ये  ज़ुल्मतों2 का  सिलसिला  जाने  कहाँ होगा

हुए  हैं  हादसे  कितने  अज़ल3  के बाद  से  लेकिन
हुआ   जो   आज   है  वैसा हुआ  जाने  कहाँ  होगा

मुहब्बत  हो  गई   फिर  तो  तुम्हारी  ख़ुशनसीबी है
बग़ावत  का  मगर   फिर  हौसला  जाने  कहाँ होगा

लिया था  जो  अहद4 तुमने  किसी के साथ जीने का
तुम्हें  क्या  है ख़बर  भी  वो  मरा  जाने  कहाँ  होगा

लगा ले  जो  गले  सबको  नफ़ा नुक़सान  ना  सोचे
जहाँ  में   शख़्स  वो  ऐसा   भला जाने कहाँ  होगा

सफ़र में  हर  मुसाफ़िर को  चले अपना  बनाते  जो
दिलों   का  कारवाँ   उनका लुटा  जाने  कहाँ  होगा

ठिठुर कर ठंढ  में  अक्सर  वतन की याद आती  है
सुनहरी  धूप  का  आँचल  बिछा  जाने  कहाँ  होगा

मिला अब तक तुझे जो भी ख़ुदा की तू समझ रहमत
बिना  उसके  तेरा   हासिल रुका  जाने  कहाँ  होगा

तुम्हारा साथ  हो कर भी  तड़प  कम ना  हुई जिसकी
बिछड़ कर फिर  सुकूँ  उसको मिला  जाने  कहाँ होगा

मुहब्बत कर गुज़र  ऐ दिल  ये रुत  वापस नहीं आनी
हिचक कर  रह गया  तो  क्या पता  जाने कहाँ  होगा







1. रिआया = प्रजा, जनता
2. ज़ुल्मत = अँधेरा; अज्ञान 
3. अज़ल = अनादिकाल, सृष्टि की शुरुआत
4. अहद = प्रतिज्ञा, वादा



2 comments:

  1. लिया था जो अहद4 तुमने किसी के साथ जीने का
    तुम्हें क्या है ख़बर भी वो मरा जाने कहाँ होगा

    लगा ले जो गले सबको नफ़ा नुक़सान ना सोचे
    जहाँ में शख़्स वो ऐसा भला जाने कहाँ होगा
    बहुत लाजवाब शेर हैं। एक जेनुइन राइटर की गहरे मन की पीड़ा , कई बार ऐसे ही बिंदु पर लगता है शायर खुद से बात कर रहा है। बहुत खूब ।

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