“क्या मैं ख़ुश हूँ?” उसने
लगभग मासूमियत के साथ पूछा. पर इस सवाल के लायक गम्भीरता उसकी आवाज़ में कहीं भी न
थी. सो खाते हुए रुक कर मैंने उसकी ओर देखा. मैं जानना चाहता था कि क्या वो खुश
नहीं है. पर तब तक उसने मुझसे ही पूछ लिया, “क्या आप खुश
हैं?” पर अब तक मुझे मेरे सवाल का जवाब नहीं मिला
था. मैं निश्चय नहीं कर पा रहा था कि ये किसी अप्रिय परिस्थिति या घटना से उभरा
प्रश्न था या फिर आत्म मंथन से निकला एक दार्शनिक प्रश्न. आवाज़ की तरह ही चेहरे पर
भी अवसाद के कोई निशान ढूँढ़ने में मैं नाकाम रहा. पर सबके चेहरे या आवाज़ से उनके
दिल का हाल कब पता चलता है! फिर भी पच्चीस एक साल का युवा, जिसे नौकरी करते हुए अभी तीन-चार साल ही हुए हों, इस तरह के गंभीर प्रश्न पूछे, तो ये जिज्ञासा स्वाभाविक है
कि सब ठीक तो है ना. इसी उत्सुकता में मैंने उससे पूछा, “क्या ख़ुशी ही हमारे जीवन का ध्येय है?”. अब चौंकने की बारी उसकी थी, “तो फिर जीवन का ध्येय क्या
है?”. अँधेरे में चलाया गया मेरा तीर शायद सही निशाने पर बैठ
गया था. ख़ुशी की ये तलाश किसी अप्रिय परिस्थिति या घटना से प्रेरित नहीं थी. ये तो
जीवन के ध्येय के स्पष्ट न हो पाने की वजह से उपजी हुई बेचैनी से शुरू हुई लगती थी.
पढ़ाई पूरी कर
एक अच्छी नौकरी पा लेने को समाज एक सफलता के रूप में देखता है. पर इस सफलता के उस
पार क्या है? सफलता कोई सिर्फ एक बार हासिल की जाने वाली
मंजिल तो है नहीं, ये तो सिर्फ एक दरवाज़ा भर है जो जीवन के अगले चरण में ले जाता
है. फिर नई सफलताओं की तलाश में ! पढ़ाई, नौकरी, शादी, बच्चे, और फिर उनकी
पढ़ाई, नौकरी, इत्यादि — ये क्रम
तो चलता ही रहता है. पर इन सबके दरम्यान हर दिन, हर लम्हा, एक जद्दोजहद है, अगले लम्हे, अगले दिन में सफलतापूर्वक प्रवेश करने की. फिर इन सब के
बीच आखिर जीवन का ध्येय क्या है? क्या सफलता
पूर्वक एक चरण से दूसरे चरण में जाते रहना? फिर ये सफलता के मानदण्ड कौन स्थापित
करेगा — समाज या व्यक्ति स्वयं ? और क्या ये
मानदण्ड समय के साथ बदलते नहीं जायेंगे ?
ख़ुशी क्या है ? साधारणतया हम इसे सफलता के सामाजिक या व्यक्तिगत मानदंडों
की प्राप्ति या परिस्थितियों और घटनाक्रम के मनोनुकूल रूप से चलने से उत्पन्न
अनुभूति के रूप में जानते हैं. आधुनिक दर्शन में इस विषय पर गहन चिंतन हुआ है और
कई विद्वानों ने इसे परिस्थितियों और घटनाक्रम से इतर, एक मानसिक अवस्था के रूप
में परिभाषित किया है. दलाई लामा ने इस पर एक बहुचर्चित पुस्तक भी लिखी है — द
आर्ट ऑफ़ हैपिनेस. पर इन सब के बावजूद ख़ुशी को जीवन का ध्येय मानना मेरे लिए कठिन
ही रहा है. मुझे तो कबीर का जीवन दर्शन ही प्रभावित करता रहा है:
बीती ताहि बिसारिये, आगे की सुध लेय
जो बनि आवे सहज में, ताही में चित देय
मैंने यही
दर्शन उसे भी पेश किया, “खुश रहना हमारे जीवन का
ध्येय नहीं है. ख़ुशी और ग़म तो जीवन यात्रा में मिलने वाले स्टेशन भर हैं. पर एक
स्टेशन से दूसरे स्टेशन के बीच की यात्रा की दिशा इस बात से तय नहीं होती कि ख़ुशी किधर
मिलेगी और दुःख से कैसे बच सकेंगे. बल्कि ये तय होती है हमारी क्षमताओं, अभिरुचिओं,
दृष्टिकोण और झुकाव के हिसाब से, जो समय के साथ बदलते भी रहते हैं. ज़रुरत है, इन्हें पहचानने की, इनमें होने वाले बदलावों के प्रति
जागरूक रहने की और उसके अनुकूल आचरण करने की. तो जीवन का मूल ध्येय है, अपने आप को
पहचानना और खुद को उसके मुताबिक व्यस्त रखना.
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