फ़िर आज देखता हूँ, वो ख़्वाब एक पुराना
आँखों में थे बसे तुम, कदमों में था ज़माना
थी ख़ाक़ में बुलन्दी, जो तुम सा हमसफ़र था
परवा न थी किसी की, था अर्श पर निशाना
जन्नत से खूबसूरत, हर सम्त था नज़ारा
लहरों के बीच जैसे, हो फूलों का आशियाना
मासूम हर अदा थी, बेबाक हर बयाँ था
तुम यार जब भी रूठो, आसान था मनाना
कुछ भी नहीं मुक़म्मल, हो ख़्वाब या हक़ीक़त
दौरे अज़ल से हस्ती, का है यही फ़साना
पह्चान जाँनशीं की, मुश्किल नहीं जरा भी
सूरत नई-नई पर, अन्दाज़ है पुराना
हर चीज़ को बदलते, देखा है ‘मुन्तज़िर’ ने
दुनिया बदल गई पर, बदला नहीं दीवाना
No comments:
Post a Comment