काम के सिलसिले में हफ़्ते भर के लिए बाहर जाना था. लिहाज़ा,
घर की दोनों ही महिलाएँ --- माँ और बीवी --- तैयारियों में काफ़ी व्यस्त थीं. मैंने
एक-दो बार मज़ाक़ भी किया कि मुझे एक हफ़्ते के लिए ही जाना है, न कि एक महीने के लिए
! पर हमेशा की तरह ही, दोनों ने मुझे गम्भीरता से नहीं लिया. माँ की ताकीदें और
सामान की तादाद, ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे ! बेटा, जो अभी तक़रीबन चार
साल का है, बस वो ही इन सरगर्मियों से परे अपने खिलौनों की दुनिया में मशगूल था.
हाँ, अपनी माँ के सिखाने पर एक आध बार ज़रूर उसने खिलौनों की फ़रमाइश की, पर उससे
ज्यादा कुछ नहीं.
अगले दिन सुबह मुंह-अँधेरे, जब वो सो रहा था, मैं घर से
निकल पड़ा. उसके बाद, एक हफ़्ता कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला. हाँ, हर रोज़ रात में होटल
के कमरे में लेटे-लेटे, घर पर सब से बात हो जाया करती थी. कभी कभार वीडिओ कॉल पर सब
को देख पाना भी मुमकिन हो पाता था. पर तकनीक की सीमाओं का पता भी, और चीज़ों की ही तरह, उसके इस्तेमाल के
बाद ही चला. अब ये वीडिओ कॉल को ही ले लीजिये. ये कहने को तो आपको रूबरू ले आता
है, पर वो आमने-सामने वाली बात नहीं आती. साथ ही, कहीं न कहीं, ये दूरी के अहसास को
और उभार देता है. और, दूर जा कर ही महसूस होता है, कि ज़रुरत अपनों से रूबरू होने की
उतनी नहीं होती, जितनी उनके साथ और सामीप्य की होती है.
वापसी में, यही सब सोचता हुआ, ट्रेन में लेट गया था. सुबह ट्रेन लेट होने की
वजह से घर पहुँचते-पहुँचते नौ बज गए. दरवाज़े पर तीन प्रफ्फुल्लित चेहरों ने मेरा
स्वागत किया. रात के ख़याल अभी भी ज़ेहन से निकले न थे. पहले घर वापस आने पर कितनी
ढेर सारी बातें सुनने और सुनाने को होती थीं. अब वो सारी बातें किश्तों में रोज़ हो
जाती हैं. और वो एक मुश्त मिलने वाली ख़ुशियाँ कभी नहीं मिलतीं. ख़ैरियत लेते हुए उन
चेहरों पर ग़ौर किया, तो पाया कि बहुत सारी भावनाओं की एक मिली-जुली सी चमक उन पर थी.
जिसमें वात्सल्य, प्रेम, आशा, आकांक्षा, इत्यादि से ले कर सकुशल वापस लौट आने की
तसल्ली तक, बहुत कुछ था ! पर वो बात नहीं थी, जो उस छोटे से चार साल के बच्चे के चेहरे
पर थी --- निश्छल, नि:स्वार्थ, स्वच्छन्द प्रेम, जो कि बस उमड़ा पड़ा था !
और होती भी कैसे ? तकनीक की मदद से हर रोज़ होने वाली बातें तो
अपनी जगह, अभी सुबह रेलवे स्टेशन से घर तक ही घंटे भर में फ़ोन पर तीन बार बात हो
चुकी थी --- ट्रेन पहुँची क्या, टैक्सी में बैठ गए क्या, कहाँ तक पहुंचे ! हफ्ते भर दूरी
तो थी, पर वियोग न था. तकनीक की मेहरबानी ना तो साथ मुहैया करा पा रही, और ना ही अलगाव.
वो तो बस बालक ही था जो हफ़्ते भर बाद मुझसे मिल रहा था !
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