कभी कहीं ये पढ़ा था,
कि सोच सकने की क़ाबिलियत ही,
इंसान को औरों से मुख़्तलिफ़,
एक अलग क़तार में ला खड़ा करती है.
पर इसकी इन्तिहाँ ये है,
कि इससे बचने के लिए भी,
इंसान ने बहुत सी चीज़ें,
ईजाद कर रखी हैं.
जो उसे पनाहे मसरूफ़ियत देती हैं;
ज़िन्दगी की उन तल्ख़ियों से,
उन रूखी हक़ीक़तों से,
जिनसे वो बेख़बर होना चाहता है.
और वक़्त के साथ,
ये मसरूफ़ियत के औज़ार,
इसी क़ाबिलियत के दम पे,
बेहतर से बेहतरीन होते जा रहे हैं.
इसकी बानगी देखनी हो,
तो इक लम्हा ठहर के देखिये;
दफ़्तर में, घर में,
बाज़ार में, सफ़र में;
कहीं भी !
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