कोई वज्ह नहीं है शायद,
बस आदतन जी रहे हैं.
सुबह होती है, तो जाग भी जाते हैं,
रात होती है, तो ख़्वाब भी आते हैं,
पर इन सबके दरम्याँ, हम,
ज़िन्दगी से भाग नहीं पाते हैं.
रोज़मर्रा की वही घिसी-पिटी शिकायतें,
खुद जैसी ही औरों की भी,वही बेमानी हिकायतें,
ज़िन्दगी में सरगर्मियां तो बहुत हैं,
पर उन्हें महसूस नहीं कर पाते हैं.
और लड़खड़ाते क़दमों से,
जब कभी मुड़ के देखते हैं,
तो इस बेमानी सी दौड़ में ख़ुद के पीछे भी,
एक बड़ी सी भीड़ को दौड़ता पा कर,
और भी मायूस हो जाते हैं !
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