प्रिय ... ?
लेखनी उठाते ही उलझनें बढ़ती जा रही हैं. अब तुम्हें क्या कह कर सम्बोधित करूँ, यह प्रश्न मुझे विचलित कर रहा है. आख़िर क्या कहूँ? सहचरी, सहकर्मिणी, सहभागिनी, सहवासिनी, सहभाषिणी, सहगामिनी ... ! विशेषण तो अनन्त हैं, किन्तु तुम्हारे सन्दर्भ में किसी एक विशेषण का प्रयोग करने पर, शेष मेरी तरफ व्यंग्य भाव से इस प्रकार देखने लगते हैं, मानों मैंने उन्हें छोड़ कर तुम्हारा अपमान कर दिया हो.
किन्तु सम्बोधित तो करना ही होगा. आख़िर पत्र लेखन की भी कुछ मर्यादाएँ होती हैं. पर विडम्बना तो यह है कि मैं तुम्हारा नाम तक नहीं जानता. अब कदाचित यह पत्र बिना सम्बोधन ही प्रेषित होगा और तुम्हीं मुझे इस दुविधा से उबार सकोगी. पर यह उलझनों का अन्त नहीं है, कदाचित यह तो एक आरम्भ भर है.
और अब जो प्रश्न सामने उपहास कर रहा है, वह है अभिवादन का. दूसरों के दृष्टिकोण से यह प्रश्न कठिन नहीं है, क्योंकि किसी भी प्रकार का अभिवादन जो अपने समकक्ष के लिए उपयुक्त हो, प्रयोग में लाया जा सकता है. किन्तु मेरी विवशता वे क्या जानें ! मैंने तो कभी तुम्हें अपने से भिन्न समझा ही नहीं. और अभिवादन के जितने भी रूप हैं वो तो दूसरों के लिए होते हैं; अपना अभिवादन कोई करे भी तो कैसे !
पहली बार व्यावहारिक आवश्यकताओं से परे कोई पत्र लिखने बैठा हूँ, तो बचपन में हिन्दी की कक्षा में पढाये गए पत्र लेखन के सारे नियम और व्याकरण के पुस्तक की स्मृतियाँ ले कर बैठा हूँ. किन्तु अब अनुभव हो रहा है कि जितने प्रकार के भी पत्र उस पुस्तक में थे या कक्षा में पढ़ाए गए थे, उनमें ऐसा कोई पत्र तो था ही नहीं. हालाँकि ऐसा नहीं है कि कि प्रेम पत्र लेखन के विषय में कुछ भी लिखा नहीं गया है अथवा मैंने पढ़ा नही है. किन्तु सम्बोधन और अभिवादन से ले कर विचारों के सम्प्रेषण तक, हर चरण में मेरा अटकना; ये दोष कदाचित पुस्तकों अथवा पठन - पाठन का नहीं, इस सम्बन्ध की विचित्रता का है.
अपने सम्बन्ध को दोषी प्रमाणित कर आक्षेपित करने हेतु क्षमाप्रार्थी हूँ, परन्तु मेरी उलझनों की जन्मदात्री क्या कुछ और है? कदाचित नहीं ! यह तो इस सम्बन्ध की विचित्रता ही है जो मुझे प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी कहने से रोक रही है और मेरी उलझनें बढ़ाती ही जा रही है.
ऐसा प्रतीत होता है कि मैं पत्र लिख तो तुम्हें रहा हूँ, पर भेज अपने आप को रहा हूँ. तो फिर अपने आप से क्या कहूँ? क्या ऐसी भी कोई बात है, जो मनुष्य चाह कर भी अपने आप से छिपा ले? नहीं, कदापि नहीं ! असम्भव ! यही तो विचित्रता है इस सम्बन्ध की, कि यह संचार साधनों का मुहताज नहीं है. हो भी कैसे ! इन साधनों की आवश्यकता तो एक सन्देश को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने के लिए पड़ती है. तो इस सन्दर्भ में तो इसका प्रयोग पूर्णतया अर्थहीन लगता है.
एक पृष्ठ से कुछ अधिक ही हो गया, पर अब तक लिख कुछ भी नहीं पाया हूँ. लिखूँ भी तो क्या — हर्ष - विषाद, राग - द्वेष, आदि सब से कहीं परे है यह मधुर सम्बन्ध ! इसमें भावनाएँ तो हैं, पर उनकी अभिव्यक्ति की आवश्यकता नहीं है ! इच्छाएँ तो हैं, पर उनकी परिणति की आवश्यकता नहीं है ! अपेक्षाएँ तो हैं, पर उन्हें परखने की आवश्यकता नहीं है ! प्रेम तो है, असीम है, पर उसके प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं है !
कुछ भी लिखने का प्रयत्न करता हूँ, तो एक साथ कई उलझनें उठ खड़ी होती हैं. किन्तु इन उलझनों से जूझने पर यही अनुभूति हुई कि तुम एक कल्पना ही सही, पर मुझमें इस भाँति लीन हो कि अब तुम्हें मुझसे अलग करना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है — न मेरे लिए, न तुम्हारे लिए, और न नियति के लिए. सम्बन्ध की इस पवित्रता को देख कर नियन्ता भी अवश्य ही हर्षित हो उठते होंगे.
एक अनुरोध है ! इस पत्र को लिखने का मेरा अनुभव अद्भुत रहा. मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि तुम भी इस अनुभव को प्राप्त करो (और प्रयत्न करो मेरी कुछ उलझनों को सुलझाने का). प्रेम पत्र कदाचित इसीलिए लिखे जाते हैं.
इति.
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