आवाज़ की हरारत1
सबको यहाँ दिखी है
बर्फ़ाब2 दिल की हालत उनको कहाँ दिखी है
हर शख़्स देखता है तस्वीर को मुकम्मल3
तस्वीर पर मुकम्मल किसको यहाँ दिखी है
सौ रंग हैं जहाँ में वाक़िफ़ कहाँ मैं सबसे
इतना मगर पता है वो चीज़ हाँ दिखी है
गर लाख मुश्किलें भी हों राह में सतातीं
आदाब4 में हमारे उलझन कहाँ दिखी है
थोड़ा ठहर के देखो मंज़र बदल रहा है
तस्वीर वो पुरानी अक्सर कहाँ दिखी है
सदियाँ गुज़र गईं हैं इन्सान को भटकते
किस्मत किसी को लेकिन अब तक कहाँ दिखी है
अपना तुम्हें समझ कर था ‘मुन्तजिर’ तुम्हारा
लेकिन ये बेक़रारी तुमको कहाँ
दिखी है
3. मुकम्मल = पूर्ण; पूरे तौर पर
4. आदाब = शिष्टाचार; तहज़ीब
वाह गुरुदास क्या ग़ज़ल है। पढ़ कर अहसास होता है वह दाग और मोमिन की परंपरा जिंदा है।
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया! ज़र्रानवाज़ी है!
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