Monday, 17 May 2021

दीद

 

आवाज़  की   हरारतसबको  यहाँ  दिखी  है

बर्फ़ाब2  दिल की  हालत  उनको कहाँ दिखी है

 

हर  शख़्स  देखता  है  तस्वीर  को  मुकम्मल3  

तस्वीर  पर  मुकम्मल  किसको  यहाँ  दिखी है 

 

सौ रंग  हैं  जहाँ  में  वाक़िफ़  कहाँ  मैं  सबसे

इतना  मगर  पता है  वो  चीज़  हाँ  दिखी  है

 

गर  लाख  मुश्किलें  भी  हों  राह  में  सतातीं

आदाब4  में  हमारे   उलझन  कहाँ  दिखी  है


थोड़ा  ठहर  के   देखो   मंज़र  बदल  रहा  है

तस्वीर  वो   पुरानी  अक्सर   कहाँ  दिखी  है


सदियाँ    गुज़र   गईं  हैं  इन्सान  को भटकते

किस्मत किसी को लेकिन अब तक कहाँ दिखी है 


अपना तुम्हें समझ कर  था  मुन्तजिर  तुम्हारा

लेकिन  ये  बेक़रारी   तुमको   कहाँ  दिखी  है



1.       हरारत = गर्मी; जोश; गुस्सा

2.       बर्फ़ाब = बर्फ़ से पिघला हुआ पानी; बर्फ़ सा ठंढ़ा पानी
 
3.       मुकम्मल = पूर्ण; पूरे तौर पर

4.       आदाब = शिष्टाचार; तहज़ीब


2 comments:

  1. वाह गुरुदास क्या ग़ज़ल है। पढ़ कर अहसास होता है वह दाग और मोमिन की परंपरा जिंदा है।

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    1. बहुत शुक्रिया! ज़र्रानवाज़ी है!

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