कल शाम ऑफिस में गिरीश की फेयरवेल पार्टी थी.
तबादले के बाद वो लखनऊ शिफ्ट हो रहा है. किन्हीं निजी कारणों से ये तबादला उसके ख़ुद
के अनुरोध पर ही हुआ है, इसलिए पार्टी
का माहौल खुशगवार था. नहीं तो तबादलों वाले फेयरवेल कई दफ़ा मायूसी भरे भी हो जाते
हैं. ऑफिस के समारोह तो आप जानते ही हैं कि लाख कोशिशों के बावजूद भी अपने आप को
औपचारिक होने से नहीं रोक पाते. सभी बारी-बारी से अपने-अपने अंदाज़ में ये बता रहे
थे कि कैसे दुनिया एक बहुत ही छोटी सी जगह है और कैसे साथ न रह कर भी उनका रिश्ता
बरकरार रहेगा. सभी लोग गिरीश की ख़ूबियों की भी तारीफ़ कर रहे थे; ठीक वही ख़ूबियाँ जिनकी वजह से ज़्यादातर लोगों को अक्सर
उससे शिकायत रहा करती थी. लेकिन इस सामाजिक दोहरेपन के हम एक ख़ास उम्र के बाद आदी
से हो जाते हैं और फिर ये हमें उतना परेशान नहीं करता.
चाय समोसों के दौर और गिरीश से अपने ताल्लुकातों
का हवाला देते बयानों के बीच कुछ ऐसे लोग भी थे जो इस तनाव से बोझिल थे कि अपनी
बारी आने पर क्या कहेंगे. क्योंकि एक इंसान के रूप में इतने सालों बाद भी वो गिरीश
को तो जान ही नहीं पाए थे. उनके लिए तो गिरीश हमेशा एक काम को अंजाम देने वाले
मशीन की तरह था. और एक मशीन से रिश्ता बना पाना कैसे मुमकिन था ! शायद अभी थोड़ी
देर के लिए उन्हें अपराध बोध भी महसूस हो रहा था, पर ये ठीक वैसा ही था जैसा कि हम अक्सर किसी के जनाज़े पर महसूस करते है; जीवन
की निरर्थकता के बारे में. पर वहाँ से वापस आते ही ज़िन्दगी फिर उसी ढर्रे पर लौट
जाती है !
इन सब औपचारिकताओं के बीच गिरीश काफ़ी सहज लग रहा
था ! एक परिपक्व तरीके से और बड़े ही अपनेपन से वो सबसे विदा ले रहा था. 15 साल की
नौकरी में वैसे तो ये उसका दूसरा ही तबादला था, पर अगर उसके बचपन से अब तक के समय
को देखें तो ये उसका पाँचवाँ विस्थापन होगा. प्राचीन काल के मुकाबले, आधुनिक युग में ये विस्थापन हमेशा थोपा हुआ नहीं होता; अक्सर हमारी ख़ुद की चाह भी शामिल होती है इसमें. पर फिर भी
ये आसान नहीं होता ! अगर आप आर्थिक रूप से सक्षम हैं तो विस्थापन की विभीषिका के
भौतिक आयाम तो आपको ज़्यादा परेशान नहीं करते, पर इसके मानसिक और भावनात्मक आयाम भी होते हैं जिनकी चर्चा बहुत कम होती है.
और इसमें जो एक चीज़ सबसे ज़्यादा नुकसान उठाती है, वो है दोस्तों का साथ.
अब गिरीश की ही बात करें तो उसने सबसे पहले अपना
शहर छोड़ा अच्छी शिक्षा की आस में. बचपन से ही वो एक होनहार छात्र था और उसके
माता-पिता चाहते थे कि वो ज़िन्दगी में कुछ हासिल करे. पर राजस्थान के जिस छोटे से
कस्बे में वो रहता था, वहाँ बहुत अच्छी शिक्षा हासिल करना मुमकिन नहीं था. सो उसे
वो जगह छोड़नी पड़ी, और साथ में छूट गए उसके वो सारे बचपन के दोस्त जो छुटपन से ही उसके
साथ थे. खैर, नए स्कूल के साथ नए दोस्त भी मिले और पुरानों की कमी दूर होती चली
गई. पर स्कूल ख़त्म होते ही सभी दोस्त अपने-अपने रास्ते चले गए. और वही कहानी एक
बार फिर से दुहराई गई. कॉलेज जो कि एक बड़े शहर में था, वहाँ फिर नए दोस्त मिले, पर
पिछली बार की तरह ही उनकी संख्या पहले के मुकाबले कमतर हो के, अब बस एक हाथ की उँगलियों
पर गिने जाने लायक रह गई थी.
तीन-चार साल पढ़ाई-लिखाई और नौकरी पाने की
जद्दोजहद में कब फुर्र हो गए, पता ही नहीं चला. और एक बार फिर सभी दोस्त अपने-अपने
रास्ते निकल गए. गिरीश भी अपनी नौकरी के साथ दिल्ली आ गया था. पर पारिवारिक व काम-काजी
व्यस्तता के बीच दोस्त अब उतनी आसानी से नहीं बन पा रहे थे. और बढ़ती उम्र और आमदनी
के साथ दोस्त बनाने में एक नई-नई सी हिचकिचाहट भी शामिल होती जा रही थी. ऑफिस में साथ
काम करने वालों से अच्छी जान-पहचान तो थी, पर उनमें से किसी को भी दोस्त कहना थोड़ी ज्यादती ही होगी. गिरीश, जो कि कभी
महफ़िलों की जान हुआ करता था, धीरे-धीरे
उसके फुर्सत के ज़्यादातर लम्हे बिना दोस्तों के गुज़रने लगे. हाँ, ऑफिस की पार्टियों या किसी सहकर्मी की शादी / सालगिरह / जन्मदिन
में आना-जाना लगा रहता था. पर बिना करीबी दोस्तों के उनमें वो बात नहीं आती थी और
वो उसके लिए महज औपचारिक सी बन कर ही रह जातीं थीं. ऐसा भी नहीं कि इतने दिनों में
गिरीश को कोई भी हमख़याल ना मिला हो; एक-दो लोगों से नजदीकियाँ बन रहीं थीं. पर मन
मिलने में वक़्त लगता है और पहले तबादले के साथ वक़्त ने अपनी तेज़ रफ़्तार की सूचना
दे दी थी. थोड़ी निराशा तो हुई, पर उसने ये कह
कर दिल को समझा लिया कि अब नौकरी में ज़िन्दगी भर एक ही जगह तो टिक कर नहीं रह सकते
ना !
यहाँ आ कर भी चीज़ें ज्यादा नहीं बदलीं. इन चन्द
सालों में सिर्फ़ एक-दो लोगों से ही थोड़ी नज़दीकियाँ मुमकिन हुईं. हाँ, फेसबुक की फ्रेन्ड लिस्ट में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ था. अब उसकी
फ्रेन्ड लिस्ट में 871 लोग शुमार थे. पर वक़्त अब ज्यादातर परिवार के साथ या अकेले
ही गुज़रता था. इसी बीच ये तबादला फिर उसे एक नई जगह ले जाने वाला है. वहाँ उसके
कोई भी दोस्त नहीं हैं. हाँ, इतने सालों से
एक ही कम्पनी में काम कर रहे होने की वजह से कुछ पूर्व-परिचित लोग ज़रूर हैं, पर जो
अब तक दोस्त नहीं बन पाए, वो अब जा के बन जाएँगे, ये कौन जानता है.
वैसे भी विस्थापन की ये प्रक्रिया, अपनी हर आवृत्ति के साथ, आदमी को अकेला, और अकेला करती
चली जाती है. पहले स्कूल के दोस्त छूट गए, फिर कॉलेज के, और फिर नौकरी
वाले. ठीक है, सोशल मीडिया की मदद से आप
टच में रहते हैं, पर वो साथ वाली बात नहीं
रह जाती. समय के साथ दूरी जैसे-जैसे बढ़ती चली जाती है, भावनात्मकता वैसे-वैसे घटती चली जाती है. सोशल मीडिया की
सहायता से पिछले सभी दोस्तों की खोज-ख़बर रखना आसान था, पर वो दोस्तों के साथ की कमी, पूरी नहीं कर सकता था.
इसका एक पहलू और भी है, जो गिरीश ने अपने स्कूल-कॉलेज के पुराने घनिष्ठ मित्रों से
एक लम्बे अरसे के बाद मिलने पर महसूस किया था. वैसे तो उनकी पल-पल की गतिविधियों
से वो वाकिफ़ था — किसने कब शादी की; कितने बच्चे हुए; कब हुए; किसने छुट्टियाँ
कहाँ मनाईं; यहाँ तक कि वो कौन सी कार चलाते हैं; और ये भी कि आज वो कैसा महसूस कर
रहे हैं ! पर जब आप किसी से काफ़ी अरसे बाद मिलते हैं, तो आपको ये अंदाज़ा नहीं होता कि इतने दिनों में वो आदमी,
वही आदमी नहीं रह गया है जो आपसे आख़िरी बार मिला था. इंसान वक़्त के साथ हर लम्हा
बदल रहा होता है, बस वो बदलाव रोज़मर्रा की
मुलाक़ातों में हमें महसूस नहीं होते. पर जब हम किसी से काफ़ी वक़्त के बाद मिलते हैं, तो वो बदलाव साफ़ नज़र आते हैं, ख़ास तौर से तब जब हम उसे उसी
पुराने चश्मे से देखने की कोशिश कर रहे होते हैं जिसकी उसके लिए हमें आदत हुआ करती
थी. उस समय उस शख्स में, जो कभी हमारे बेहद करीब था, हमें एक अजीब सी अजनबियत का, थोड़ा परेशान करने वाला, अहसास होता है. और तब
कभी हमें ये भी मालूम पड़ता है, कि हमने अपने
पुराने दोस्त को हमेशा के लिए खो दिया है.
हालाँकि, विस्थापन की ये प्रक्रिया एक अवसर भी देती है कि आप अपनी ज़िन्दगी, एक नए
परिवेश में, दोबारा से शुरू कर सकें; ख़ास तौर से तब, जब जीवन में सब कुछ अच्छा न
चल रहा हो. पर अधिकतर ये प्रक्रिया तकलीफ़देह ही साबित होती है. कभी मजबूरी में, और कभी तरक्की की आस में हमें बार-बार विस्थापित होना पड़ता है. आधुनिक युग में,
विस्थापन के प्रति पूर्वाग्रह को दकियानूसी सोच का द्योतक भी माना जा सकता है. पर दुनिया भर में देखिये ! कुछ तो बात
है कि लोग कठिन से कठिन परिस्थतियों में भी अपने वतन को नहीं छोड़ना चाहते. यहाँ तक
कि वो तो दफ़न भी घर के पास, अपनी मिट्टी में, अपनों के साथ ही होना चाहते हैं. कितने
संघर्ष दुनिया भर में सिर्फ़ इसलिए चल रहे हैं, क्योंकि लोग किसी भी क़ीमत पर विस्थापित होने को तैयार नहीं हैं.
विस्थापन अगर अपनी ख़ुद की मर्ज़ी से हुआ हो, तो
इसमें अक्सर हम क्या पाते हैं, सारा ध्यान इस
पर ही लगा रहता है. इसमें हम क्या खोते हैं, ये सोचना हम पसन्द नहीं करते. गिरीश सबको बता रहा था कि ये तबादला कैसे उसकी
ज़िन्दगी में एक बेहतर बदलाव लाएगा. सभी लोग उसके मुक़ाबले अपनी-अपनी ज़िन्दगी के
बारे में सोचते हुए सिर हिला रहे थे. इस वजह से कुछ लोगों को गिरीश से इर्ष्या भी
हो रही थी और कुछ को अपने आप पर अफ़सोस भी हो रहा था. काश उनकी भी ज़िन्दगी में कुछ हसीन
बदलाव आ पाते ! अपनी ज़िन्दगी की निरर्थकता को अक्सर हम दूसरे के सापेक्ष ही महसूस
कर पाते हैं. दूसरे को कुछ पाते देख कर या तो हम में उस चीज़ की लालसा पैदा हो जाती
है या फिर उसे अप्राप्य मान कर हम थोड़े बुझ से जाते हैं.
गिरीश की वो सहजता बहुत से लोगों को असहज कर रही
थी. उन्हें लग रहा था कि उसे कुछ ऐसा मिल गया है, जो उनके पास नहीं है. पर उन्हें नहीं मालूम था कि गिरीश की वो सहजता उसके
अनुभव की वजह से थी. उसे मालूम था कि आगे क्या होने वाला है. ये बदलाव गिरीश के
लिए नया नहीं था. सिर्फ एक चीज़ थी जो उसके लिए भी नई थी. इस बार उसे किसी से
बिछड़ने का कोई अफ़सोस न था!
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