Saturday, 29 December 2018

ग़म

इस कदर बेतरह ग़म उठाए हैं
तब कहीं ग़म को समझने पाए हैं

हम उसूलों पे शहीद हो कर भी
इस जहाँ को ना बदलने पाए हैं

ख़्वाब जन्नत का नहीं हसीन उतना
बाद  मेरे,  वो  ज़माने   आए   हैं

कोशिशें  मेरी  फ़िज़ूल   होंगी
असलियत कुछ लोग देख आए हैं

No comments:

Post a Comment