आज इस ढलते हुए सूरज के सामने खड़ा
इस उदास से घर में, बिलकुल अकेला
बालकनी से नीचे लोगों को आते जाते देख कर
ज़िंदगी के मुसाफिरखाने से जियादा
कुछ और न होने का ख़याल लौट आता है.
घर के अंदर वापस जाते ही
असहज सा लगने लगता है
मानो पता नहीं कौन से दरवाजे,
कौन से परदे के पीछे से
तुम अचानक निकल आओ.
हालांकि मैं ये जानता हूँ
कि तुम अपना फ़र्ज़ निभा रही हो, और मैं अपना,
पर पता नहीं क्यों, ये फ़र्ज़ निभाने का सिलसिला
खुशगवार कम ही हो पाता है;
शायद इसीलिये लोग फ़र्ज़ कम ही निभाते हैं .
कहते हैं कि मुहब्बत की फसल तैयार तब मानी जाती है
जब दो इंसानों को एक दूसरे की आदत सी पड़ जाती है
फिर तो तुम्हारी याद आदतन ही आयी होगी
वर्ना सुना है कि ज़िंदगी की आपाधापी में तो
लोग खुद को भी भूल जाते हैं.
ख़याल सिलसिलेवार तरीके से जाहिर नहीं हो पा रहे
कहना कुछ चाहता हूँ, कह कुछ और जा रहा हूँ
मन की भटकन शायद लफ़्ज़ों में भी जाहिर हो रही है,
पर कुल मिला कर लब्बो लुआब यही है
कि तुम्हारी बहुत याद आ रही है.
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