Saturday, 29 December 2018

ग़म

इस कदर बेतरह ग़म उठाए हैं
तब कहीं ग़म को समझने पाए हैं

हम उसूलों पे शहीद हो कर भी
इस जहाँ को ना बदलने पाए हैं

ख़्वाब जन्नत का नहीं हसीन उतना
बाद  मेरे,  वो  ज़माने   आए   हैं

कोशिशें  मेरी  फ़िज़ूल   होंगी
असलियत कुछ लोग देख आए हैं

Wednesday, 5 December 2018

तुम्हारी याद

आज इस ढलते हुए सूरज के सामने खड़ा
इस उदास से घर मेंबिलकुल अकेला
बालकनी से नीचे लोगों को आते जाते देख कर
ज़िंदगी के मुसाफिरखाने से जियादा
कुछ और  होने का ख़याल लौट आता है.

घर के अंदर वापस जाते ही 
असहज सा लगने लगता है
मानो पता नहीं कौन से दरवाजे,
कौन  से परदे के पीछे से
तुम अचानक निकल आओ. 

हालांकि मैं ये जानता हूँ
कि तुम अपना फ़र्ज़ निभा रही होऔर मैं अपना,
पर पता नहीं क्योंये फ़र्ज़ निभाने का सिलसिला
खुशगवार कम ही हो पाता है;
शायद इसीलिये लोग फ़र्ज़ कम ही निभाते हैं .

कहते हैं कि मुहब्बत की फसल तैयार तब मानी जाती है
जब दो इंसानों को एक दूसरे की आदत सी पड़ जाती है
फिर तो तुम्हारी याद आदतन ही आयी होगी
वर्ना सुना है कि ज़िंदगी की आपाधापी में तो
लोग खुद को भी भूल जाते हैं.

ख़याल सिलसिलेवार तरीके से जाहिर नहीं हो पा रहे
कहना कुछ चाहता हूँकह कुछ और जा रहा हूँ
मन की भटकन शायद लफ़्ज़ों में भी जाहिर हो रही है,
पर कुल मिला कर लब्बो लुआब यही है
कि तुम्हारी बहुत याद  रही है.