नवम्बर २०१३ की बात है. शादी के पाँच साल पूरे हो रहे थे. मेरे एक अभिन्न मित्र हैं, जिनकी शादी मुझसे एक साल बाद, पर ठीक उसी तारीख़ पर हुई है. सो कुछ अरसे से हमारे बीच साथ में
सालगिरह मनाने की योजना बन रही थी. सालगिरह के दो दिन बाद ही दफ़्तर के मेरे एक प्रिय मित्र की
शादी होनी थी, मथुरा में. सो ज्यादा दूर कहीं जा भी नहीं सकते थे. जयपुर दिल्ली से पास ही है और रजवाड़ों के
इतिहास से परिपूर्ण है, सो जयपुर
ही जाना तय हुआ. दो दिन
जयपुर में साथ गुजार कर मैंने मथुरा होते हुए दिल्ली वापसी की योजना बनाई.
दो दिन जयपुर में कब गुजर गए पता ही नहीं चला और
फिर मित्र को विदा कह, हम जयपुर
से आगरा होते हुए मथुरा
के लिए रवाना हुए. सड़कों के
मामले में राजस्थान देश में
काफी समय से आगे है, सो सीधी
सपाट सड़कों पर गाडी दौड़ाते हुए
हम दोपहर तक आगरा पहुँचने को थे. सड़क पर फतेहपुर सीकरी का बोर्ड देख कर दिल में ख़याल आया कि
शादी का समारोह तो शाम में ही होगा, तो क्यूँ न हम सीकरी होते हुए मथुरा चलें. अकबर द्वारा बनवाये गए इस शहर के बारे में बचपन
से ही किताबों में पढ़ रखा था, लिहाजा बुलंद दरवाज़े की तस्वीर भी ज़ेहन में ताज़ा हो गयी.
गाइड के भेष में, रोज़गार की तलाश करता, एक युवक सड़क से ही साथ हो लिया. जयपुर - आगरा सड़क से करीब दो किलोमीटर अन्दर जा कर एक मीनार के पास
हमने गाडी खड़ी की और अन्दर दाखिल हुए. जिस बुलंद दरवाज़े की तस्वीर मैंने न जाने कितनी जगहों पर
देखी होगी और उसे देख कर मैंने न जाने क्या क्या कल्पना की होगी, पर आज साक्षात उसके सामने खड़े हो कर वैसा कुछ भी महसूस नहीं हुआ. जिस दरवाज़े से हो कर कभी कितने ही हाथी, घोड़े, ऊँट और जुलूस निकल जाते होंगे, उसी दरवाज़े के सामने आज जो नज़ारा है, उसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते. भारतीय पुरातत्व विभाग के द्वारा
संरक्षित, एक
चारदीवारी के अन्दर सिकुड़े सिमटे, पर्यटकों की भीड़ के सामने, इस दरवाज़े की बुलंदी सर्कस के पिंजरे के
अन्दर बन्द शेर की
मानिंद मालूम होती है.
खैर मायूसियत को काबू में
करते हुए दरवाज़े से अन्दर दाखिल होने पर एक बहुत बड़ा सा खुला अहाता मिलता है, जिसके ठीक बीचोबीच सफ़ेद संग-ए-मरमर की एक छोटी मगर बेहद दिलकश जालीदार इमारत है. गाइड बताता है कि यही है मशहूर सूफ़ी शेख़ सलीम चिश्ती की दरगाह. काफी नाम सुन रखा है इस दरगाह का भी, सो निगाहों में एक अलग सी अहमियत पैदा हो
गई. घूम-घूम कर दरगाह के भीतर-ओ-बाहर कई चक्कर लगाए. अन्दर से तो दरगाह एक सूफ़ी संत के माफ़िक ही काफी
सादगीपूर्ण है, पर चूँकि बनवाई हुई मुग़लों की है, इसलिए बाहर संग-ए-मरमर की जालियों पर की गई नक्काशी आला दर्ज़े की है. निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह की तरह धक्का-मुक्की वाली भीड़ तो नहीं है पर अच्छी-ख़ासी संख्या में लोग यहाँ है. कब्र पर ज़बीं रगड़ने और चादर चढ़ाने वालों के
हुजूम से दरगाह गुलज़ार है.
कहते हैं कि अकबर के औलाद इन्हीं
की मेहरबानी से हुई थी और इन्हीं के नाम पर अकबर ने अपने बेटे का नाम सलीम रखा था, जो बाद में जहाँगीर के नाम से गद्दीनशीन
हुआ. इस करिश्मे को गुज़रे
कोई पाँच सौ साल हो चुके हैं, और तब से आजतक दूर-दूर से लोग मन्नतें माँगने इस दरगाह पर चले आ रहे हैं. यहाँ एक रवायत भी है, कि लोग अपनी मन्नत के नाम का एक धागा इन ख़ूबसूरत जालियों में बाँध जाते
हैं और फिर मन्नत पूरी होने पर आ कर सूफ़ी संत का शुक्रिया अदा करते हैं और धागा
खोल जाते हैं. कहते हैं कि मन्नत का ये धागा, संत को हमेशा हमारी मन्नत की याद दिलाता रहता है. हमारी बेग़म तो झटपट से दो-तीन धागे बाँध आती हैं, पर मैं अविश्वास से गाइड द्वारा दिए एक
धागे को हाथ में पकड़े देखता रह
जाता हूँ उन जालियों की तरफ, जिन पर लोग धागे बाँध रहे हैं. धागे बँध- बँध कर एक तरफ की जालियों से
रौशनी आनी लगभग बंद हो चुकी है. लेकिन ये सिर्फ धागे नहीं हैं. ये तो मुरादें हैं
लोगों के मन की. और इनकी तादाद बता रही है कि भले इन पाँच सौ सालों में आदमी ने बहुत
तरक्क़ी की है, पर उसका मन अभी भी सुकून और सन्तोष से दूर ही है. लेकिन जब शहंशाहों
के मन भी मुरादों से खाली नहीं तो फिर रिआया की तो बात ही क्या करनी. इर्द-गिर्द और भी जालियाँ हैं, जो बिना धागों के बोझ तले दबे अपने बेनक़ाब हुस्न से दीदावरों का
मन मोह रही हैं. पर क्या इन्हें बनाने वाले उन शिल्पकारों ने भी
धागे बाँधे होंगे जिन्होंने इसे इतना बेहतरीन बनाया है? आखिर कब से शुरू हुई होगी ये रवायत? क्या जब पानी की कमी की वजह से ये शहर उजड़ा, तो किसी ने जाते हुए कोई मन्नत नहीं माँगी होगी?
ऐसे ही सवालों के ताने-बाने में उलझा, मुग़लिया शिल्प की बेजोड़ कारीगरी को
निहारता, हाथ में मन्नत
का धागा लिए जाने मैं और कितनी देर खड़ा रहता, अगर गाइड ने आ कर सलीम चिश्ती के वालिद
की मज़ार देखने को न कहा होता. मज़ार यूँ तो मामूली सी ही थी पर इस बहाने मुझे उस अहाते और
अपने ख्यालों से बाहर आने का मौक़ा मिला. मज़ार से आगे नज़र पड़ी आस पास के इलाक़े पर और उस बेइन्तेहाँ गरीबी और मुफ़लिसी पर जो चारों ओर टीन की छतों वाली छोटी-छोटी खोलियों की शक्ल में दूर तक बेतरतीब सी
फैली हुई थी. सँकरी – सँकरी गलियाँ, और उनमें बजबजाती हुई नालियाँ; वहाँ के बाशिन्दों को शर्मसार करती हुईं जहाँ – तहाँ निकली पड़ी थीं. फटे पुराने कपड़ों में इधर-उधर घूमते, खेलते, भीख माँगते दीन-हीन बच्चों को देख कर हृदय विचलित हो गया. फिर याद आया कि ऐसा ही कुछ नज़ारा मुख्य
सड़क से अन्दर आते भी दिखा था, पर शायद कुछ नया और ऐतिहासिक देखने की ललक में दिल तक नहीं पहुँचा
था.
मन को साधने की कोशिश में
ध्यान हटाया तो पाया कि गाइड बता रहा था कि कैसे सलीम चिश्ती दाँतों के साथ पैदा
हुए थे और कैसे वो पैदा होते ही चलने भी लग गए थे. पर अब ये बातें बड़ी बेमानी सी मालूम हो रही थीं. संत भी क्या केवल शहंशाहों के ही हुए? कितनी दूर – दूर से लोग चले आते हैं आस्था के साथ
अपनी – अपनी मुरादें ले कर, पर इन पास के बाशिन्दों और इनकी मुरादों
का क्या? क्या इतने सारे
लोगों में से किसी ने भी अब तक अपनी बेहतर ज़िंदगी की दुआ नहीं की होगी? किसी ने भी कोई मन्नत नहीं माँगी होगी? शायद माँगी होगी और पूरी भी हुई होगी. कौन जाने !
मन को और समेटा तो देखा कि
मन्नत का धागा अब तक हाथ ही में मुन्तजिर था. बस फिर क्या था, गाइड को दी विदा और एक बार फिर दाख़िल हुआ
दरगाह के अन्दर; एक इरादे, एक मुराद, एक मन्नत के साथ. धागा बाँधा और मन्नत माँगी कि एक बार दुबारा ज़रूर आऊँ और जब आऊँ तो खोलने के लिए यहाँ एक भी धागा बँधा न मिले. देखते हैं मन्नत पूरी होती है या नहीं !
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