Tuesday, 3 January 2023

अपने हिस्से का ग़म

अपने हिस्से  का ग़म हर इक को उठाना ही पड़ता है

ज़िन्दगी  साथ  भले  न  दे  पर  निभाना ही  पड़ता  है


देखना यूँ  ख़ुद  को  बिखरते  हुए   कुछ  नहीं आसाँ 

ये तमाशा सब को पर इक दिन दिखाना ही पड़ता है


एक दिन  हम तुम से  बिछड़ जाएँगे  ये  हक़ीक़त है

सब भुला कर तुमसे  मगर दिल लगाना ही पड़ता है


ज़िन्दगी यूँ तो आज़माइश से कम  कुछ नहीं लेकिन 

मुस्कुरा  कर अपने  ग़मों को   छुपाना  ही  पड़ता  है


सच और झूठ का फ़र्क सब जानते हैं मगर फिर भी 

तल्ख़2 हो  सच  तो झूठ से दिल  लगाना ही पड़ता है


आज़माइश  महबूब  की रस्म-ए-उल्फ़त3 ज़मानों  से  

वो  वफादार  सही  मगर  आज़माना   ही  पड़ता  है


वक़्त  बदलेगा   इस  यक़ीं  के  सहारे   किसी  सूरत  

इक नए दिन को  फिर गले से लगाना  ही  पड़ता  है  



1. आज़माइश = परीक्षा

2. तल्ख़ = कड़वा, कटु; बेरुखा; अप्रिय, बेमज़ा

3. रस्म-ए-उल्फ़त = दोस्ती / प्रेम की प्रथा / रिवाज


2 comments:

  1. बहुत सरल , शानदार दिल छू ती गज़ल। पहली लाइन तो हेडिंग से मिल जाती है लेकिन दूसरे तीसरे और चौथे शेर बड़ी ही सरलता से गंभीर बात कह जाते हैं। बाकी दिल लगाना ही पड़ता है वाले शेर को अभी सोच रहा हूं । यह फोर्स ठीक है इस शायरी में कि फोर्स हटा कर इसे भी और मधुर कर दें। 👍👍

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