एक ताला लगे घर को लौटना
किसी इन्सान के लिए
कितना दुश्वार1 हो सकता है
इसे वो लोग शायद ही समझ पायें
जिन्हें घर के दरवाज़े पर
घंटी बजाने के बाद
थोड़ा सा इंतज़ार करना भी
अखरता 2
है
इसकी वज्ह कुछ भी हो सकती है
कोई मजबूरी, लाचारी, बदक़िस्मती,
या फिर कभी अपनी
अना 3 की मर्ज़ी भी
कभी तो इन्सान, एक बेहतर
मुस्तक़बिल 4 की तलाश में
अपने आज को
क़ुर्बान करता चला जाता है
तो कभी क़िस्मत भी
उसके साथ ठिठोली करने से
बाज़ नहीं आती
ताला खोल के अन्दर घुसने पर
घर बड़ा ठहरा-ठहरा सा लगता है!
प्लेट तो मैं सुबह नाश्ते के बाद
बेमन से किचन में रख आया था
पर वो चाय की प्याली अभी भी
वहीं मेज पर पड़ी आराम फ़रमा रही है
कपड़े तो मैंने उठा कर
धुलने के लिए डाल दिए थे
पर वो आधा पढ़ा अखबार अब भी
उसी करवट बिस्तर पे पड़ा है
घर के एक नामुराद कोने में सब जूते
एक दूसरे से रूठे डले हैं
तो दूर किसी दूसरे कोने में कुछ डब्बे
बेवज्ह उदासीन से पड़े हैं
ऐसा भी नहीं कि इस घर में
वक़्त बिल्कुल थम सा गया हो
यहाँ हर रोज़ सुब्ह भी होती है
और हर शाम रात भी आती है
पर एक अजीब सी मायूसी है
जो घर के हरेक कोने में
बिन बुलाये मेहमान की तरह
टिक कर बैठी हुई है
बैठक से कमरे तक का सफ़र
मीलों का लगने लगता है
घर में मौजूद हर सामान मानों
मेरे हाल का गवाह बनने लगता है
मैं सोचना नहीं चाहता
बस सो जाना चाहता हूँ
पर बददिमाग़ दिल
आसानी से सोने भी नहीं देता
अक्सर ख़यालों का सिलसिला
इस बात पर आ के रुक जाता है
कि ज़िन्दगी में आख़िर
क्या कसर रह गई
इसका जवाब ढूँढते-ढूँढते
या तो मैं थक के सो जाता हूँ
या किसी बहाने से फिर
घर से बाहर निकल जाता हूँ
1. दुश्वार = कठिन; दूभर; मुश्किल भरा
2. अखरना = कष्टकर / अप्रिय लगना; खलना, कचोटना
3. अना = अहं
4. मुस्तक़बिल = भविष्य