Saturday, 21 January 2023

घर अकेले

एक ताला लगे घर को लौटना

किसी इन्सान के लिए

कितना दुश्वार1 हो सकता है

इसे वो लोग शायद ही समझ पायें

 

जिन्हें घर के दरवाज़े पर

घंटी बजाने के बाद

थोड़ा सा इंतज़ार करना भी

अखरता 2  है

 

इसकी वज्ह कुछ भी हो सकती है

कोई मजबूरी, लाचारी, बदक़िस्मती,

या फिर कभी अपनी

अना 3 की मर्ज़ी भी

 

कभी तो इन्सान, एक बेहतर

मुस्तक़बिल 4 की तलाश में

अपने आज को

क़ुर्बान करता चला जाता है

 

तो कभी क़िस्मत भी

उसके साथ ठिठोली करने से

बाज़ नहीं आती

 

ताला खोल के अन्दर घुसने पर

घर बड़ा ठहरा-ठहरा सा लगता है!

 

प्लेट तो मैं सुबह नाश्ते के बाद

बेमन से किचन में रख आया था

पर वो चाय की प्याली अभी भी

वहीं मेज पर पड़ी आराम फ़रमा रही है

  

कपड़े तो मैंने उठा कर

धुलने के लिए डाल दिए थे

पर वो आधा पढ़ा अखबार अब भी

उसी करवट बिस्तर पे पड़ा है


घर के एक नामुराद कोने में सब जूते

एक दूसरे से रूठे डले हैं

तो दूर किसी दूसरे कोने में कुछ डब्बे

बेवज्ह उदासीन से पड़े हैं  

 

ऐसा भी नहीं कि इस घर में

वक़्त बिल्कुल थम सा गया हो

यहाँ हर रोज़ सुब्ह भी होती है

और हर शाम रात भी आती है

 

पर एक अजीब सी मायूसी है

जो घर के हरेक कोने में

बिन बुलाये मेहमान की तरह

टिक कर बैठी हुई है

 

बैठक से कमरे तक का सफ़र

मीलों का लगने लगता है

घर में मौजूद हर सामान मानों

मेरे हाल का गवाह बनने लगता है

 

मैं सोचना नहीं चाहता

बस सो जाना चाहता हूँ

पर बददिमाग़ दिल

आसानी से सोने भी नहीं देता

 

अक्सर ख़यालों का सिलसिला

इस बात पर आ के रुक जाता है

कि ज़िन्दगी में आख़िर

क्या कसर रह गई

 

इसका जवाब ढूँढते-ढूँढते

या तो मैं थक के सो जाता हूँ

या किसी बहाने से फिर

घर से बाहर निकल जाता हूँ



1.  दुश्वार = कठिन; दूभर; मुश्किल भरा   

2. अखरना = कष्टकर / अप्रिय लगना; खलना, कचोटना

3. अना = अहं

4. मुस्तक़बिल = भविष्य


Tuesday, 3 January 2023

अपने हिस्से का ग़म

अपने हिस्से  का ग़म हर इक को उठाना ही पड़ता है

ज़िन्दगी  साथ  भले  न  दे  पर  निभाना ही  पड़ता  है


देखना यूँ  ख़ुद  को  बिखरते  हुए   कुछ  नहीं आसाँ 

ये तमाशा सब को पर इक दिन दिखाना ही पड़ता है


एक दिन  हम तुम से  बिछड़ जाएँगे  ये  हक़ीक़त है

सब भुला कर तुमसे  मगर दिल लगाना ही पड़ता है


ज़िन्दगी यूँ तो आज़माइश से कम  कुछ नहीं लेकिन 

मुस्कुरा  कर अपने  ग़मों को   छुपाना  ही  पड़ता  है


सच और झूठ का फ़र्क सब जानते हैं मगर फिर भी 

तल्ख़2 हो  सच  तो झूठ से दिल  लगाना ही पड़ता है


आज़माइश  महबूब  की रस्म-ए-उल्फ़त3 ज़मानों  से  

वो  वफादार  सही  मगर  आज़माना   ही  पड़ता  है


वक़्त  बदलेगा   इस  यक़ीं  के  सहारे   किसी  सूरत  

इक नए दिन को  फिर गले से लगाना  ही  पड़ता  है  



1. आज़माइश = परीक्षा

2. तल्ख़ = कड़वा, कटु; बेरुखा; अप्रिय, बेमज़ा

3. रस्म-ए-उल्फ़त = दोस्ती / प्रेम की प्रथा / रिवाज