Friday, 8 July 2022

अजनबी शहर

ये      शहर     अपना       जिसने     बरसों    परवरिश   की 
पहलू  में  जिसके  सुकूँ   भी   था  और   हल्की  तपिश1 भी
अब   जाने  क्यूँ   किसी  अजनबी   सा   बेगाना   लगता   है 
जानी  पहचानी  हैं  राहें   इसकी   पर  अनजाना  लगता  है

वही  गर्मी  वही  बारिश  शहर  का  अब भी  वही  मौसम है
वही   बच्चे   वही   मेले   मगर  अब  रौनक  थोड़ी   कम  है
वही   गलियाँ    वही    रस्ते    जिन   पर    बड़े    हुए    हम
पता  पूछते   हैं   अब   उन्हीं  से  हैरत  आँखों  में  लिए हम 

सुना  है  इन  दिनों   ख़ूब  तरक्क़ी  हुई   है  शहर  में  अपने 
ऐशो आराम की हर चीज़  मंज़र-ए-आम2 है शहर में अपने 
मगर  मुस्तक़िल3 सी  एक  कसक  रहती है नज़र में अपने 
क्यूँ   दिखता  नहीं  एक  भी  दोस्त  पुराना  शहर  में  अपने 



  1.  तपिश = गर्मी; बेचैनी; व्याकुलता; कष्ट
  2.  मंज़र-ए-आम = साधारण दृश्य; आसानी से नज़र आने वाला 
  3.  मुस्तक़िल = स्थाई, अटल; निरंतर; पक्का

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