उसे मुझसे बेपनाह मुहब्बत थी
इतनी, जितनी मैं उससे
चाह कर भी, नहीं कर सकता
नहीं ! मुझमें ऐसी कोई ख़ासियत न थी
अगर ऐसा कुछ भी होता तो
मेरे अफसानों की एक फ़ेहरिस्त ना होती !
वैसे कहते हैं कि हरेक इन्सान में
कुछ न कुछ बात तो होती है, फिर
ऐसी मुहब्बत सबको नसीब क्यूँ नहीं होती !
हालाँकि सच तो यही है कि किसी से
बेइन्तिहा मुहब्बत करने के लिए
उसमें कोई ख़ासियत कब चाहिए
चाहिए तो बस एक नज़र
जो कुछ लम्हों के लिए ही सही
पर किसी को भी ख़ास बना दे
तो फिर कहाँ से लाऊँ वो नज़र
जो ख़ुद से आगे बढ़ कर
किसी और की भी क़ाइल1 हो सके
कहाँ से लाऊँ वो नज़र
जो चन्द ख़ूबियों से इस क़दर मुतमइन2 हो
कि सारी ख़ामियाँ बेमानी हो कर रह जाएँ
अब कहाँ से लाऊँ वो नज़र
जिसे सिवा उसके
कुछ और दिखाई ही ना दे
वैसे एक और सच शायद ये भी है कि
किसी में ख़ासियत वो ढूँढते हैं जिनमें
मुहब्बत करने का माद्दा3 ही नहीं होता
क्योंकि कुछ न कुछ ख़ासियत
तो हर शख़्सियत में होती है,
पर हर किसी को वो ख़ास शख़्स नहीं मिलता
1. क़ाइल होना = मान लेना; प्रशंसक / मुरीद होना
2. मुतमइन होना = संतुष्ट होना; इत्मीनान होना
3. माद्दा = वह मूल पदार्थ जिससे कोई चीज़ बने; योग्यता; सामर्थ्य; पात्रता; वह जिससे कोई चीज़ बनी या बनाई जाती हो, घटक