“महत्वाकांक्षा का ऐसा घनघोर अभाव ! कहीं ये
पुरुषार्थ का अभाव तो नहीं, जो
महत्वाकांक्षा के लोप का छद्म वेश धारण किये है. पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, धन-ऐश्वर्य, इनसे कौन सांसारिक व्यक्ति विमुख हो सकता है. कहीं सन्यासी
तो नहीं हो जाना चाहते तुम?” ऑफिस में टीम
बिल्डिंग वर्कशॉप के दौरान आयोजित नाटक में पूछा गया उसका ये प्रश्न सिद्धार्थ के
अंतर्मन में उथल-पुथल मचा गया. ऐसा लगा जैसे ये प्रश्न नाटक के किरदार से नहीं, खुद सिद्धार्थ से ही पूछ लिया गया हो. उसके स्तब्ध रह जाने
को दर्शकों ने बेहतरीन अभिनय समझा और पर्दा गिर गया. अगले अंक में सिद्धार्थ को
इसका उत्तर देना था. मगर सिद्धार्थ का मन स्क्रिप्ट पर नहीं टिक रहा था. वो तो बस
उस प्रश्न पर ही अटक कर रह गया था.
सिद्धार्थ शुरू से ऐसा ही था. अगर एक जगह अटक
गया, तो फिर उससे आगे नहीं बढ़ पाता था. इसी वजह से पढाई और फिर बाद में अपने काम
में उसने बहुत तरक्की पाई. आज उसकी गिनती अपनी कम्पनी के चन्द तेज़ी से उभरते
सितारों में होती थी. मगर इधर कुछ दिनों से उसका दिल कहीं भी नहीं लगता था. सात
साल के बाद ही उसे ये आपाधापी बेमानी सी लगने लगी थी. अक्सर उसे ऐसा लगता था मानो वो
अपनी दिनचर्या को किसी और की आँखों से देख रहा हो, और जो कुछ नज़र आ रहा था वो बहुत ही अर्थहीन था. उस के दोस्त उसकी इस बात को, एक समय से थोड़ा पहले आ गई मिड लाइफ़ क्राइसिस से अधिक, कुछ और नहीं समझ
पा रहे थे. तभी उसने ये बात उससे कह के अपना दिल हल्का करने की कोशिश की थी. वो उसकी सबसे अच्छी दोस्त जो थी. पर अब
मन्च से अपनी प्रतिक्रिया एक तरह से सार्वजानिक कर के उसने उसे चिंतन के काल्पनिक आकाश
से निर्णय के व्यावहारिक धरातल पर ला खड़ा किया था.
“सांसारिक मानदंडों के प्रति मेरी इस बढ़ती
नीरसता को निश्चय ही अकर्मण्यता समझा जा सकता है. एक साधारण मनुष्य के लिए किसी के
स्पर्धा में भाग न लेने के दो ही कारण सम्भव लगते हैं — सक्षम न होना अथवा
आत्मविश्वास की कमी होना. इस सरल अवधारणा से परे किसी और सम्भावना की ओर उसका
ध्यान नहीं जाता. परिणाम, या स्पष्ट
कहें तो पुरस्कार, में मेरी
अरुचि को वह किन्हीं अन्य सुलभ तथ्यों के अभाव में, सन्यासी हृदय का द्योतक मान सकता है.” स्क्रिप्ट से भटकता देख कर डायरेक्टर चिन्तित हो रहा था, पर उसे सिद्धार्थ कहीं से भी नर्वस नहीं लग रहा था.
“पर मेरे चिन्तन का विषय न तो स्पर्धा है, न उसका परिणाम, और ना ही उसका पुरस्कार. मैं
तो विचार कर रहा हूँ, कि स्पर्धा का
उद्देश्य क्या है ! जितने भी वर्तमान या भावी प्रतिभागी स्पर्धारत हैं, क्या उन्होंने इस, या जीवन की किसी भी और, स्पर्धा के
उद्देश्य की विवेचना की है ? बिना इसके वो
कैसे निर्णय कर पाते हैं कि किस स्पर्धा में भाग लेना है और किसमें नहीं.” सिद्धार्थ की आवाज़ शान्त किन्तु दृढ़ होती जा रही थी.
“प्रतियोगिता का उद्देश्य होता है, योग्यता के मूल्यांकन द्वारा श्रेष्ठता को प्रमाणित करना.
किन्तु कैसी श्रीहीन सी होगी वो श्रेष्ठता जिसे प्रमाणित करने की आवश्यकता पड़ जाए
! श्रेष्ठता तो स्वाभाविक होती है, नैसर्गिक होती
है. वो प्रमाणित या अर्जित नहीं की जाती, वो तो स्वीकृत होती है. और श्रेष्ठता प्रमाणित करने की ये उत्कंठा क्या किसी
हीनता की परिचायक नहीं है ! जब हीनता का भाव ही नहीं होगा, तो श्रेष्ठता का विचार भी नहीं होगा. और जब श्रेष्ठता का
विचार नहीं होगा, तो फिर प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता भी नहीं होगी.” सिद्धार्थ
स्क्रिप्ट से पूरी तरह भटक चुका था, पर दर्शक
तल्लीन थे. और "यशोधरा" को उसके प्रश्न का उत्तर मिलने जा रहा था.
“महत्वाकांक्षाएँ भले न हों मुझमें, पर उत्तरदायित्वों के निर्वहन से कभी विमुख नहीं हुआ मैं.
हाँ, ईश्वर के विषय में मेरे गैर-पारम्परिक विचार अवश्य ही मेरे जीवन के आधार विहीन होने का भ्रम पैदा कर
सकते हैं. एक ऐसा मनुष्य जिसकी साधारण मनुष्यों से परे एक अलौकिक ईश्वर में आस्था
नहीं है, उसके विषय में अच्छी राय
बनाना अगर असम्भव नहीं, तो कठिन तो है
ही. और इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है. राजा-महाराजा, शासन व्यवस्था, और इनके समानान्तर, प्रकृति की सत्ता के अधीन रहने की आदी
हो चुकी मनुष्य जाति से ऐसे विचार अनपेक्षित नहीं हैं. एक स्वाधीन मनुष्य के प्रति
एक दास के मन में सम्मान की भावना, बिना इर्ष्या या आक्रोश के, स्वाभाविक रूप से
नहीं आ सकती. फिर उसे समझना तो और कठिन है ही. पर तुम्हें तो
मैंने सदा विशिष्ट लोगों में गिना है. क्या तुम भी मेरे अंतर्द्वंद्व को नहीं समझ सकीं ?”
“अगर सांसारिक मानदंडों के प्रति उदासीनता या उनके परे जाना सन्यासी हृदय का प्रतीक है, तो संभवतः मैं
संन्यास मार्ग पर हूँ. प्रश्न पूछना मेरा स्वभाव भर नहीं है, ये मेरा जीवन क्रम है. मैं किसी और के बताए मार्ग पर नहीं
चल सकता, मुझे अपना मार्ग स्वयं
बनाना है. पर इन सबसे इतर मैं तुम्हें इतना आश्वस्त तो कर ही सकता हूँ, कि रात के
अँधेरे में तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगा. सिद्धार्थ
हूँ मैं ! सिद्धार्थ ही रहूँगा !”