Monday, 12 August 2019

एक आम आदमी की ज़िन्दगी


एक आम आदमी की
गुमनाम सी ज़िन्दगी,
ना किसी से अदावत,
ना किसी की बन्दगी.

मसाइल मुख्तलिफ़ हों
बिलकुल, ऐसा भी नहीं
और दिल ना मुज़्तरिब1 हों
बिलकुल, ऐसा भी नहीं.

बच्चों की पढ़ाई से ले कर
माँ की दवाई तक,
और पड़ोस की शादी से ले कर
बहन की विदाई तक,

इन सब के बाद बची-खुची ज़िन्दगी,
रोज़गार की सरगर्मियों में ख़र्च जाती है,
और अपने ख़ुद के लिए,
कुछ बच ही नहीं पाती है.

दुन्यावी जद्दोजहद में,
छोटी-छोटी खुशियों को तरसती,
आज को देख कर सहमती,
कल को सोच कर लरजती2.

कुछ हादसों के हमकदम,
मौत के इंतज़ार में,
ज़िन्दगी एक तयशुदा ढर्रे पर
चलती चली जाती है.

पर इन सबके बावजूद,
भले अपने हालात से लाजवाब,
कुछ उम्मीदें, कुछ हसरतें,
और कुछ नामुमकिन से लगते ख़्वाब !



1. मुज़्तरिब = बेचैन
2. लरजती = काँपती, थरथराती 

Thursday, 1 August 2019

याद


आज नदी किनारे बैठ कर याद आया, कि
जब पहली बार तुम्हें सुना था, देखा था,
कितना मुतास्सिर था !
ऐसा लगा था, कि तुम सा
शायद कोई भी नहीं !

तुम एक सुंदर, सुरम्य झील की तरह थे,
गंभीर, गहरे, और शांत;
देर तक विचलित नहीं रहने वाले.
तुम्हारे पास आ कर बैठना,
बेचैनी कम करता था,
सुकून देता था, तसल्ली देता था.
फिर मैं इन्हीं की तलाश में, बार-बार
तुम्हारे पास आ कर बैठने लगा.

पर जैसे-जैसे अजनबियत दूर होती गई,
मालूम होने लगा, कि तुम
शांत या गंभीर नहीं, ठहरे हुए थे;
तुम्हारे अंतर्तल के न दिखने को,
मैंने गहराई समझ लिया था;
और यूँ तुम्हारी अप्रतिम आभा,
हर मुलाक़ात के साथ बढ़ती जाती
एकरसता के साथ, घटती चली गई.
आज नदी किनारे बैठ कर याद आया...