एक आम आदमी की
गुमनाम सी ज़िन्दगी,
ना किसी से अदावत,
ना किसी की बन्दगी.
मसाइल मुख्तलिफ़ हों
बिलकुल, ऐसा भी नहीं
और दिल ना मुज़्तरिब1 हों
बिलकुल, ऐसा भी नहीं.
बच्चों की पढ़ाई से ले कर
माँ की दवाई तक,
और पड़ोस की शादी से ले कर
बहन की विदाई तक,
इन सब के बाद बची-खुची ज़िन्दगी,
रोज़गार की सरगर्मियों में ख़र्च जाती है,
और अपने ख़ुद के लिए,
कुछ बच ही नहीं पाती है.
दुन्यावी जद्दोजहद में,
छोटी-छोटी खुशियों को तरसती,
आज को देख कर सहमती,
कल को सोच कर लरजती2.
कुछ हादसों के हमकदम,
मौत के इंतज़ार में,
ज़िन्दगी एक तयशुदा ढर्रे पर
चलती चली जाती है.
पर इन सबके बावजूद,
भले अपने हालात से लाजवाब,
कुछ उम्मीदें, कुछ हसरतें,
और कुछ नामुमकिन से लगते ख़्वाब !
1. मुज़्तरिब = बेचैन
2. लरजती = काँपती, थरथराती