Monday, 3 October 2022

नक़ाब

तुम  मुझसे  रोज़  मिलते  हो

पर  मुझे  पहचान  नहीं  पाते

वज्ह वो नक़ाब,  जिसके बिना

मैं  तुमसे  कभी  नहीं  मिला

 

मेरे पास  ऐसे  कई  नक़ाब  हैं

जिन्हें  मैं  अलग-अलग  लोगों

के लिए, अलग-अलग मौकों पर

इस्तेमाल   किया   करता  हूँ

 

इरादतन,  मैं  किसी  से

कभी, बेनक़ाब  नहीं मिलता

यहाँ  तक   कि   ख़ुद

अपने आप से भी नहीं !

 

ये मेरा डिफेन्स मेकैनिज़म है 

इन नक़ाबों की बदौलत ही मैं

इतने सारे दुनयावी रिश्तों को

काफ़ी हद तक साध पाता हूँ

 

और इन्हीं की मेहरबानी से  

आईने में अपने अक्स को

देखते हुए, मुद्दतें गुज़रीं   

कभी कोई पशेमानी नहीं हुई

 

यूँ तो मसरूफ़ियत मौका नहीं देती

फिर भी यदा-कदा, अकेले में

एक सवाल ज़ेहन में उठता है

कि मैं आख़िर कौन हूँ ?

 

और फिर एहसास होता है

कि नक़ाब पहनना जितना

मुश्किल है, नक़ाब उतारना

उससे कहीं ज़ियादा मुश्किल