तुम इन्सान हो,
कोई आईना नहीं !
तो फिर क्यों,
तुम्हारे आदाब,
सामने वाले के
हिसाब से होते हैं.
तुम इन्सान हो,
कोई आईना नहीं !
तो फिर क्यों,
किसी की कमियाँ,
तुम बेबाक हो कर
बयाँ कर जाते हो.
तुम इन्सान हो,
कोई आईना नहीं !
तो फिर क्यों,
किसी के दिल का दर्द,
किसी की ख़ूबी-ए-निहाँ,
तुम देख नहीं पाते.
तुम इन्सान हो,
कोई आईना नहीं !
तो फिर क्यों,
इतनी नज़ाक़त,
कि एक ज़रा सी चोट,
और तुम बिखर से जाते हो.
तुम इन्सान हो,
कोई आईना नहीं !
तो फिर क्यों,
अँधेरों में तुम,
बेबस, लाचार से
नज़र आते हो.
तुम इन्सान हो,
कोई आईना नहीं !
तो फिर क्यों,
एक उदास शख़्स,
तुमसे मिल कर,
सुकून नहीं पाता.
तुम इन्सान हो,
कोई आईना नहीं !
तो फिर क्यों,
महसूस नहीं करते,
अपने सामने वालों को,
और अपने आप को.
आख़िर तुम इन्सान हो,
कोई आईना नहीं !