कोई डेढ़ साल पहले जब
से तबादले के बाद यहाँ सोलापुर रहने आया हूँ, तबसे यहाँ का मौसम बड़ा रास आ रहा है.
गर्मियों में ना ए.सी. की ज़रुरत है, और ना सर्दियों में रजाई की. और रोज़ाना शाम होते
ही चल पड़ने वाली बेहतरीन हवाओं का तो कहना ही क्या ! सुबह-शाम लम्बी सैर, रात
को दोस्तों के साथ देर तक खुले में बैठना, और अक्सर मौसम का लुत्फ़ लेने छत पर हो
आना. दिल्ली जैसी प्रदूषित जगह से यहाँ आ कर ऐसा लगा, मानों ज़िन्दगी साँस लेना सीख
गई हो !
छत पर टहलते हुए, कॉलोनी
का एक विहंगम दृश्य रोज़ आँखों के सामने से गुज़रता था — स्कूल, क्लब, स्विमिंग पूल, स्टेडियम, और करीने से बने ढेर सारे घर. ये सब एक लगभग
गोलाकार सड़क के किनारे बड़े ही व्यवस्थित तरीके से बनाए गए थे. और इन सब के केन्द्र
में था एक बहुत बड़ा ख़ाली ज़मीन का टुकड़ा, जिस पर एक पार्क बनना प्रस्तावित था. इतने
बेहतरीन नज़ारे के ठीक बीचोबीच खर-पतवार से भरा ये ख़ाली ज़मीन का टुकड़ा आँखों को बहुत
खलता था. छत पर से अक्सर ये ख़याल आता था कि कब ये पार्क बने और कब ये ख़ूबसूरत नज़ारा
मुकम्मिल हो !
कुछ महीनों पहले ही,
एक गणमान्य व्यक्ति के आगमन की तैयारियों के बीच, एक दिन इस चिरप्रतीक्षित पार्क के शिलान्यास का
बोर्ड लगते देखा. जान कर हर्ष हुआ कि पार्क का काम शीघ्र ही शुरू होने जा रहा है
और साल ख़त्म होने से पहले उद्घाटन भी संभव है. जीवन में कभी भी सृजन का साक्षी
बनना एक अत्यन्त संतोषजनक अनुभव होता है. बन के देखिये, अलौकिक अनुभव है ! और यहाँ
तो ये निहित स्वार्थ भी था कि छत पर टहलना और भी मनोरम होने वाला है.
आशा के अनुरूप, जल्द
ही काम शुरू हो गया. दिन भर भारी-भरकम गाड़ियों की आवाजाही और कामगारों की चहल-पहल
घर में महसूस होने लगी. दफ़्तर में किन्हीं व्यस्तताओं के कारण कुछ दिनों तक छत पर
जाना न हो सका. इसी दरम्यान, हफ्ते भर के लिए बाहर भी जाना हुआ. एक हफ्ते में ही
यहाँ के मौसम की बहुत याद आई. आते ही शाम को वक़्त निकाल के छत पर गया और ताज़ी हवा
फेफड़ों में भर कर एक नज़र पीछे पार्क पर भी डाली. देखा कि खर-पतवार साफ़ हो चुकी थी
और पार्क का ख़ाका भी उभर कर सामने आ चुका था. पर तभी नज़र पड़ी इसकी चारदीवारी पर, जिसका
काम जोरों-शोर से चल रहा था. नज़र पड़ते ही जम सी गई ! चारदीवारी ! पार्क में !
पार्क की तो ख़्वाहिश थी, पर उसके तसव्वुर में चारदीवारी कहीं भी न थी. उम्मीद तो
ये थी कि पार्क बनेगा, तो हर ओर से बच्चे दौड़ते हुए पार्क में आयेंगे. बड़े-बुजुर्ग
सैर करते दिखेंगे. कहीं से घुस जायेंगे, कहीं से निकल आयेंगे. छत पर टहलते-टहलते
कब इस पार्क की परिकल्पना चारों तरफ बने स्कूल और मकानों के आँगन के रूप में हो गई
थी, पता ही नहीं चला. और अब इस आँगन में ये दीवार बहुत नागवार गुज़र रही थी !
दरियाफ़्त करने पर
पता चला कि इस चारदीवारी की लागत लाखों में आएगी. पैसों का इतना निर्मम दुरुपयोग !
एक सज्जन ने कहा कि दीवार तो हर पार्क के चारों ओर होती है, फिर आपको इस पार्क की
दीवार पर आपत्ति क्यों है. आपत्ति क्यों है, ये तो मैं उन्हें क्या ही बता पाता. सिर्फ़ इतना ही पूछ पाया कि
पार्क में दीवार होनी ही क्यों चाहिए. आप भी पूछिए ये सवाल, अपने आप से ! जवाब इतनी आसानी
से नहीं मिलेगा.
उसी दिन रात को जब
टहलने निकला, तो ज़ेहन में चारदीवारियाँ पहले से ही टहल रहीं थी. ग़ौर किया तो पाया कि
चारदीवारी हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है, क्योंकि ये तो बगल के स्कूल
में भी थी और थोड़ी दूर बने अस्पताल में भी; घरों के चारों ओर भी थी और मैदान के
चारों ओर भी. गेस्ट हाउस पर भी इसका पहरा था और कुछ वरिष्ठ अधिकारियों के आवासों
पर भी.
करीब ढाई सौ परिवार यहाँ इस कॉलोनी में रहते हैं. सुरक्षा कारणों से इसके चारों
तरफ कँटीले तारों से लैस एक ऊँची चारदीवारी बनाई गई है. बाहर से अन्दर आने या
अन्दर से बाहर जाने के लिए भी सिर्फ़ एक ही रास्ता रखा गया है, जिस के गेट पर कई चौकीदार
चौबीसों घंटे मुस्तैद रहते हैं. फिर इतने इन्तज़ामात के बाद एक अस्पताल के चारों ओर
चारदीवारी की क्या ज़रुरत है ?
इसी कॉलोनी में एक पार्क पहले से मौजूद है, जिसके इर्द-गिर्द भी चारदीवारी का
पहरा है. वहाँ बच्चे खेलते तो हैं, पर कभी आप जाएँ तो ग़ौर कीजियेगा. आप सुन सकेंगे
बहुत से अभिभावकों की आवाज़ें, जो साँप-बिच्छुओं के डर से बच्चों को दीवार के पास भी
जाने से मना करती रहतीं हैं. और तो और, दीवार का दीदार आप यहाँ बने मंदिर के चारों
तरफ भी कर सकते हैं ! पर मज़े की बात ये है, कि इतनी दीवारें बनाने वालों ने भी जहाँ
दीवारें बनाना वाजिब नहीं समझा, वहां भी रहने वालों ने खुद ही बाड़ लगा कर एक काम
चलाऊ सी दीवार खड़ी कर ली है. उनमें भी, जिन
लोगों में सौन्दर्य बोध थोड़ा अधिक विकसित है, उन्होंने उस पर एक हरा कपड़ा लगा कर उसे
एक अलग सी नफ़ासत भी बख्शी है! और ऐसा नहीं है कि ये चारदीवारियाँ कोई इसी कॉलोनी
की खूबी हैं; ये नज़ारे बाहर दूसरी जगहों पर भी आम हैं, और एक लम्बे अरसे से आम
हैं.
पर वो चीज़ जो हमेशा से नज़र के सामने थी, आज थोड़ा सोचने पर अपनी
उपयोगिता सिद्ध नहीं कर पा रही थी. शायद आम हो चुकी चीज़ें सोचने को बाध्य नहीं
करतीं क्योंकि हम उन्हें वैसे ही स्वीकार कर चुके होते हैं. पर अगर आप थोड़ा रुक कर
सोचेंगे, तो पायेंगे कि इनमें से कई आम चीज़ों को एक नए नज़रिए से देखने की ज़रुरत
है. ज़रा सोच कर देखिये, “दीवार हम क्यों बनाते हैं ?”.
दीवार हम बनाते हैं, शायद नियन्त्रण के लिए. नियन्त्रण लोगों के आने
या जाने पर; नियन्त्रण अपनी या दूसरों की प्राइवेसी पर; नियन्त्रण सुरक्षा पर; इत्यादि. इतिहास में कई मशहूर दीवारों का
उल्लेख है — चीन की दीवार से ले कर
बर्लिन की दीवार तक, जिसकी बरसी अभी हाल ही में गुजरी है. कुछ साल
पहले अमरीका में एक उम्मीदवार राष्ट्रपति का चुनाव जीत गए, मेक्सिको की सीमा पर एक दीवार बनाने का वायदा कर के. ज़ाहिर है, जब भी नियन्त्रण डगमगाता सा महसूस होता है, जनमानस दीवार को एक समाधान के तौर पर देखता है. पर अभीष्ट
नियन्त्रण को प्राप्त कर सकने वाली दीवार के उदाहरण कम ही हैं. और नियन्त्रण भी कहीं
न कहीं यहाँ पर उपयोग किये जाने वाला एक सुसंस्कृत शब्द भर है, दीवारों के मूल में
तो शायद डर ही है !
मनोविज्ञान के नज़रिए से देखें तो ये माना जाता है कि मानव व्यवहार की कई परतें
होतीं हैं. इस लिहाज से ये डर केवल शारीरिक व पारिवारिक सुरक्षा और प्राइवेसी के
हनन तक सीमित नहीं है. ये डर शायद विशिष्टता के ह्रास का भी है, जिसमें चारदीवारी
अपना अहम किरदार निभाती है. ये विशिष्टता प्रदान करती है, औरों से पृथकता प्रदान
कर के. तभी शायद और घरों के मुकाबले बड़े बंगलों में दीवारें बनानी ज़रूरी समझी जातीं
हैं. और जितने बड़े बंगले उतनी ऊँची दीवारें !
कुछ परत और आगे चलें, स्थूल से सूक्ष्म की ओर, तो वो चारदीवारियाँ भी आपको नज़र
आएँगीं, जो हमने अपने दिलो दिमाग़ के चारों ओर खींच रखी हैं. शायद इस डर से कि लोग
क्या सोचेंगे; शायद इस डर से कि अगर हम कामयाब नहीं हो पाए तो; शायद इस डर से कि कहीं
कोई हमें तकलीफ़ न पहुंचा दे; शायद इस डर से कि कहीं न कहीं हम दिल से सभी लोगों को
एक बराबर नहीं समझते, पर ऐसा करने का दम ज़रूर भरते हैं. और ठीक इस पार्क के चारों
तरफ बन रही दीवार की तरह, ये दीवारें भी रोकती हैं विचारों और भावनाओं के स्वछन्द
आवागमन को. उस प्रक्रिया को, जिसमें सम्भावना है हमें एक बेहतर इन्सान बना सकने
की.
पार्क की चारदीवारी में तो कई गेट भी लगेंगे, और उन पर ताले भी ! पर थोड़ी सी मेहनत
कर के हम उस गेट तक पहुँच सकेंगे जो सबके लिए खुला रखा जाएगा. या थोड़ी और मेहनत कर
के हम उस निर्णय तक पहुँच सकेंगे कि सभी गेट ही खुले रखे जायें. पर अफ़सोस, ज़हनी
चारदीवारियों के गेट तक पहुँचना या उन पर पड़े ताले खोल सकना, उतना आसान नहीं होगा !