Saturday, 23 March 2019

मेला



यादों की एक ख़ासियत होती है, कि वो आपका साथ कभी नहीं छोड़ते और अनायास ही कभी सामने आ खड़े हो कर आपको चौंका देते हैं. इसका हालिया अहसास मुझे आज तब हुआ, जब मैं अपनी ही टाउनशिप में लगे एक मेले में पहुंचा. ये मेला हमारी ही टाउनशिप के बाशिन्दों द्वारा आयोजित होने की वजह से उन पारम्परिक मेलों की तरह तो नहीं था, जहाँ खेल-तमाशे, चहल-पहल और शोरो ग़ुल के दरम्यान अलग अलग जगहों से आये लोग एक जगह पर इकट्ठा होते हैं. अन्जान लोगों के बीच व्यवहार की कुछ ख़ास बन्दिशें नहीं होने की वजह से लोग खुल कर मस्ती करते हैं. उसके ठीक उलट, यहाँ तो अधिकतर लोग न सिर्फ़ एक दूसरे को जानते हैं, वरन ऑफिस की सीनियोरिटी भी चाहे-अनचाहे यहाँ बिन बुलाये मेहमान की तरह ख़ुद-ब-ख़ुद तशरीफ़ ले आती है. कितने ऐसे मेलों में गए हैं आप, जहाँ आप किसी को या कोई आपको हर थोड़ी देर बाद “नमस्ते  सर” कर रहा हो ! सो तमाम इन्तज़ामात और लाख कोशिशों के बावजूद भी यहाँ पर उन मेलों वाला माहौल बन नहीं पा रहा था.

मेले में घुसने के बाद एक सरसरी नज़र डाली तो देखा कि टाउनशिप की ही महिलाओं (जिनमें हमारी श्रीमतीजी भी शामिल थीं) द्वारा लगाई गई चाट-पकौड़ी और अन्य व्यंजनों की दुकानें; बाहर से आये कुछ व्यवसायियों की उँगलियों पर गिने जा सकने वाली चन्द दुकानें, जो टाउनशिप के धनाढ्य लोगों को बाइक-कार से ले कर सोफा तक बेचना चाह रहीं थीं; तथा छोटे व बड़े बच्चों के के लिए कुछ खेल खिलौने कुल मिला कर यही था हमारा मेला ! पारम्परिक मेलों वाली रौनक की कमी तो वैसे ही खल रही थी, रही-सही कसर आला अधिकारियों की वजह से होने वाली गहमा-गहमी ने पूरी कर रखी थी. और वो मेले वाली बेफ़िक्री कहीं ढूँढे नहीं मिल रही थी !

ऐसे में जब कुछ खा-पी के खिसक लेने के सिवा कोई चारा नज़र नहीं आ रहा था, तभी ध्यान खींचा 20-25 की उम्र के कुछ लड़कों ने. छल्लों से सामान पर निशाना लगाने के लोकप्रिय खेल की दुकान पर भरपूर ठहाके लग रहे थे. उत्सुकतावश, पास जा कर देखा, तो परिचित लोग ही थे — युवा ऊर्जा से भरपूर ! चुन-चुन के निशाना लगाते जा रहे थे और कभी तेल की शीशी, तो कभी पाउडर का डिब्बा, जीतते जा रहे थे. और हर जीत के बाद मेला ठहाकों की आवाज़ से गूँज उठता था. थोड़ी ही देर बाद शायद ही कुछ जीतने को बाकी बचा था और लड़के आगे बढ़ गए थे; अगली दुकान फ़तह करने !

बगल में देखा तो हर मेले में पाई जाने वाली एक और निशाना लगाने की दुकान थी — बन्दूक़ से बैलून पर निशाना लगाने की. बच्चे-बड़े कई अपना निशाना आज़मा रहे थे. देखते ही, बचपन की एक याद ताज़ा हो आई. बचपन में जब कभी भी मेले में जाना होता था, तो बाबा (मेरे पिता, जिन्हें मैं बाबा कह के बुलाता था) इस दुकान पर ज़रूर ले जाते थे. शुरू-शुरू में, जब मैं बहुत छोटा था, तो मैं सिर्फ़ साथ खड़े हो कर देखता था और बाबा निशाना लगाते — पहले एक-दो बैलूनों पर; फिर छेद करके धागे से लटकाए हुए पुराने एक या दो पैसे के पुराने सिक्कों पर; फिर कुछ मोटी-पतली कीलों पर; और सबसे अंत में इनामी पिन पर. पिन पर निशाना लगा लेने के बाद आपके एक सधे हुए निशानेबाज़ होने पर कोई शक़ नहीं रह जाता था, और आस-पास का हर शख्स आपको बड़ी इज्ज़त भरी नज़रों से देखता था. कभी-कभी बड़ी दुकानों पर घूमने वाले निशाने भी रहते थे जिन्हें साधना और भी बड़ी उपलब्धि माना जाता था. 

धीरे-धीरे मैं भी बन्दूक उठाने लगा और बाबा ने मुझे निशानेबाज़ी सिखाई. शुरुआत में जब दो-तीन निशाने लगातार चूक जाते, तो अपनी झेंप या खीज मिटाने के लिए मैं अन्धाधुन्ध किसी भी बैलून पर बन्दूक़ चला देता. पर बाबा समझ जाते और फिर अगला निशाना मुझे बता कर ही लगाना होता था. जैसे-जैसे मैं बड़ा होने लगा, मैं भी तरक्क़ी हासिल कर के बैलूनों से सिक्कों, कीलों, और फिर पिन तक पहुंच गया. फिर तो मेले का बहुत इंतज़ार रहने लगा, कि कब मेला लगे और कब मौक़ा मिले ! दुकान पर पहुँचते ही एक प्रतियोगिता सी चल पड़ती थी हम पिता-पुत्र में. एक निशाना मैं लेता, एक निशाना वो लेते, और जब कभी भी माँ साथ होतीं तो बगल में खड़ी निहाल होतीं. ऐसे ही प्रतियोगिता पिन तक जाती और जो चूक जाता अगले मेले तक उसकी चुटकियाँ ली जातीं और संयोगवश निशाने पर अक्सर मैं ही रहता. आज भी अच्छे से याद है कि रूपये के पाँच छर्रे मिलते थे और हम दोनों बिना बीस-पच्चीस निशाना लगाए हटते नहीं थे. मनचाही चीज़ पर निशाना लगाने की कोशिश और निशाना सही बैठ जाने पर होने वाली बेहिसाब सी खुशी, शायद आने वाले वक़्त में कठिनतर होते जाने वाले निशानों से बिलकुल ही नावाकिफ़ और नापरवाह थी.

इन्हीं ख़यालों में उलझा हुआ मैं दुकान पर जा खड़ा हुआ. बाबा तो आज साथ नहीं थे ! पर एक मित्र थे, जो ख़ुद भी एक अच्छे निशानेबाज़ हैं. दरियाफ़्त करने पर पता चला कि छर्रों की जगह ले ली थी मूँग के दानों ने, और पाँच कोशिशों के एवज में देने थे बीस रूपये. बन्दूक जाँचने से पता चला कि नली के उपर निशाना साधने के लिए दी हुई पिन, जो अक्सर मेलों में दुकानदार थोड़ी टेढ़ी कर देते हैं, यहाँ है ही नहीं. ऐसे में निशाना लगाना टेढ़ी खीर थी. पर क्या करें हक़ीक़त जानते हुए भी उम्मीद पाल लेना, ये भी एक इंसानी हक़ीक़त है. खैर हम दोनों ने पाँच-पाँच निशाने लगाए और उम्मीद के उलट एक भी बैलून नहीं फोड़ पाए. पर आँखें थीं कि ढूँढ रहीं थीं सिक्के, कीलें, और पिन ! जो नदारद थे. इसलिए नहीं कि हम उन पर निशाना साध पाते, पर इसलिए कि वो बचपन की याद पूरी तरह से मुक़म्मिल हो पाती.

इस खट्टे-मीठे अनुभव के थोड़ी देर बाद हम लोग लिट्टी-चोखा खाने बैठ गए, और फिर जब एक नज़र उठा कर देखा, तो वही मेला जो पिछले तीन-चार घंटों से बिल्कुल बेसबब और बकवास सा मालूम पड़ रहा था, उसमें मानो एक जान सी पड़ गई हो. एक अलग ही रौनक नज़र आ रही थी ! अब जा के समझ में आया कि रौनक असल में बाहरी नहीं, अन्दरूनी होती है. बाहर तो सिर्फ़ उस की परछाई पड़ती है. मेला बचपन वाला तो वाक़ई नहीं था, पर बचपन की यादों के कुछ अनमोल लम्हे ज़रूर वापस दे गया था. और दे गया था जीवन के बारे में एक नया नज़रिया, एक नई समझ. आभार उन सभी किरदारों का, जिनकी वजह से ये संभव हुआ !


Thursday, 7 March 2019

होली


(चन्द साल पहले एक प्रतियोगिता में प्रसून जोशी के दिए मिसरे 
"चल होली खेलें यार, चल ख़्वाब रंगें इस बार" पर लिखी कविता)




चल होली खेलें यार
चल ख़्वाब रंगें इस बार

ऊँच-नीच को भूल कर
बीते कल को भूल कर
रूठों का दिल जीत कर
फिर दोस्त बनें इस बार

चल होली खेलें यार
चल ख़्वाब रंगें इस बार

जीवन है इक चित्र सा
कूची इसकी कर्म ही
मन को जो निर्मल कर दे
वो रंग भरें इस बार

चल होली खेलें यार
चल ख़्वाब रंगें इस बार.