Thursday, 29 November 2018

चाँदनी रात



आज रात खाने के बाद, थोड़ी ताज़ी हवा की तलब बालकनी में ले आई। हल्की फुल्की सी चलती हवा, गुलाबी सी ठंढ; थोड़ी देर बैठने का जी कर गया, तो एक कुर्सी खींच ली। रात के कोई दस बज रहे होंगे। बाहर सड़क पर ज़िन्दगी की रफ़्तार कुछ थम सी रही थी। तभी हवा के एक आवारा झोंके ने बालकनी में आने वाले दरवाजे का पल्ला बंद कर दिया। घर के अन्दर से आती हुई रौशनी के गुल होते ही मुंडेर पर छिटकी हुई चाँदनी का अहसास हुआ। बाहर झाँक कर देखा तो पूर्णिमा की रात थी --- चाँद पूरे शबाब पर था।

कुछ तो बात है चाँद में। खींच के बाहर ले ही आता है। नीचे सड़क पर एक शख्स़ को टहलते देख कर चाँदनी रात में टहलने की ख़्वाहिश हमारे भी दिल में जागी। फिर क्या, एक जैकेट डाली और चल पड़े। दूसरे माले से नीचे सीढ़ियाँ उतरते वक़्त चाँदनी रात के जितने भी फ़िल्मी और साहित्यिक दृश्य ज़ेहन में उठ सकते थे, उठ गए। श्रृंगार रस में चाँदनी रात का अपना एक ख़ास मुकाम है। बड़े बड़े शायरों और उपन्यासकारों ने इस पर कलम तोड़ कर लिखा है। और फिल्मों में भी इसको खूब भुनाया गया है। लिहाज़ा चन्द गाने सीढ़ियाँ उतरते वक़्त हमने भी गुनगुना लिए।

पर नीचे पहुँचते ही चाँद की जगह हमारा इस्तिक़बाल किया सामने सड़क पर लगे स्ट्रीट लैम्प ने। सड़क, जो हमारे घर के सामने करीब 300 मीटर तक बिलकुल सीधी है, स्ट्रीट लैम्प की पीली रौशनी में नहाई पड़ी थी और चाँदनी का कहीं कोई नामोनिशान तक था। मायूसी में सर उठा कर देखा तो तसल्ली हुई कि चाँद वहीं अपनी जगह मौजूद था, पर उसकी चाँदनी इन सोडियम वैपर लैम्पों की रौशनी के आगे फीकी पड़ गई थी।

सन् 2003 से ही एक बिजलीघर के आवासीय परिसर का बाशिंदा होने के नाते इस पीली रौशनी से एक रिश्ता सा जुड़ गया है। घंटों इस रौशनी के साए में टहलते घूमते, बैठते बतियाते गुजारे हैं। लिहाज़ा उन अँधेरी सड़कों को बहुत पीछे छोड़ आये हैं, जिनके हर मोड़ पर अगर चोर नहीं तो कम से कम साँप या कुत्ते का ही खटका लगा रहता है। चूँकि यहाँ बिजली कभी नहीं जाती, सो ये एक ऐसा रिश्तेदार सा बन गया है जो कभी साथ नहीं छोड़ता।

मगर आज ये भरोसेमन्द रिश्ता मुझे कुछ चुभ सा रहा है। इतने सालों में ये पहली बार है, जब ये पीली रौशनी और उससे जगमगाती ये सड़क, इतना अखर रही है। काश ये रौशनी, थोड़ी देर के लिए ही सही, गुल हो जाती तो आज वो चाँदनी हमें मुहैय्या हो पाती जो बचपन में बिजली जाने पर सहज ही मिल जाया करती थी। लेकिन सहजता से प्राप्त किसी भी चीज़ की क़द्र अब तक किसने जानी है! क़ीमत तो इनसान उसी चीज़ की समझता है जिसकी उसे क़ीमत चुकानी पड़ती है। और किसी भी चीज़ की क़ीमत तब तक ही है, जब तक वो हासिल नहीं है। सालों पहले कॉलेज के दिनों में पढ़ा एक शेर याद रहा है :

" तुझको पा लेने में वो बेताब कैफ़ियत कहाँ
ज़िन्दगी वो है जो तेरी जुस्तजू में कट गई "

तब सिर्फ पढ़ा था, आज समझ भी पाया हूँ।